चम्पावत के बग्वाल मेला पर कोरोना के बादल
चम्पावत के बग्वाल मेला पर कोरोना के बादल

चम्पावत के बग्वाल मेला पर कोरोना के बादल

चम्पावत, 23 जून (हि.स.)। कोरोना की वजह से इस बार उत्तर भारत का सुप्रसिद्ध पूर्णागिरि मेला नहीं हो सका। अब प्रसिद्ध बग्वाल मेले पर भी कोरोना महामारी की तलवार लटकी हुई है। ऐसा माना जा रहा है कि इस बार देवीधुरा का बग्वाल मेला नहीं हो सकेगा। हालांकि अभी मेले को निरस्त करने का औपचारिक ऐलान नहीं हुआ है, लेकिन मेले के नहीं होने पर बग्वाल की परंपरा को प्रतीकात्मक रूप से बिना दर्शकों के कराने के विकल्प पर विचार किया जा रहा है। जिला पंचायत की ओर से संचालित होने वाले इस मेले में हर साल हजारों लोग शिरकत करते रहे हैं और चार खामों के योद्धाओं के बीच फल फूलों का युद्ध (जो कभी पत्थर से लड़ा जाता था) को देख कर रोमांचित होते हैं। जिला मुख्यालय से 57 किमी दूर देवीधुरा में स्थित मां बाराही धाम के खोलीखांड दुबाचैड़ में हर साल आषाड़ी कौतिक (रक्षाबंधन) के दिन बग्वाल होती है। फल-फूलों से खेली जाने वाली बग्वाल इस बार तीन अगस्त को प्रस्तावित है। चार खाम (चम्याल, गहरवाल, लमगड़िया और वालिग) और सात थोक के योद्धा फर्रो के साथ बग्वाल में शिरकत करते हैं, लेकिन इस बार कोरोना के चलते दो सप्ताह तक चलने वाले बग्वाल मेले के होने की संभावना खत्म होती दिख रही है। मेले में दूरदराज से कारोबारी आते हैं। लोग जमकर खरीददारी भी करते हैं। मां बाराही मंदिर समिति के अध्यक्ष खीम सिंह लमगड़िया ने कहा है कि अभी बग्वाल मेले को लेकर कोई बैठक नहीं हुई है। कोरोना के खतरों के मद्देनजर चारों खामों के प्रतिनिधि प्रशासन के साथ मिलकर आगे के हालात पर विचार करेंगे। मेला नहीं होने पर प्रतीकात्मक बग्वाल पर विचार किया जाएगा। जिला पंचायत के अपर मुख्य अधिकारी राजेश कुमार का कहना है कि कोरोना के चलते फिलहाल किसी भी तरह के मेले व भीड़भाड़ पर रोक है। कोरोना के खतरे को देखते हुए इस बार देवीधुरा बग्वाल मेला होना मुमकिन नहीं लगता है। जिला पंचायत को मेले की तैयारी करने केे लिए कम से कम तीन सप्ताह लगते हैं लेकिन इस बार न तो इतना समय है और न ही मेले कराने लायक हालात। इसलिए होती है बग्वाल क्षेत्र के चार खामों चम्याल, गहरवाल, लमगड़िया और वालिग के लोग रक्षाबंधन के दिन बग्वाल खेलते हैं। मान्यता है कि पूर्व में यहां नरबलि देने की प्रथा थी लेकिन जब चम्याल खाम की एक वृद्धा के एकमात्र पौत्र की बलि के लिए बारी आई, तो वंशनाश के डर से बुजुर्ग महिला ने मां बाराही की तपस्या की। देवी मां के प्रसन्न होने पर वृद्धा की सलाह पर चारों खामों ने आपस में युद्ध कर एक मानव बलि के बराबर रक्त बहाकर कर पूजा करने की बात स्वीकार ली। तभी से ही बग्वाल का सिलसिला चला आ रहा है। हिन्दुस्थान समाचार/राजीव मुरारी-hindusthansamachar.in

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