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योग विशेष: पहले वैश्विक योगी गुरु ‘परमहंस योगानंद’

नई दिल्ली, 17 जून (हि.स)। परमहंस योगानंद पहले भारतीय योग गुरु हुए, जिन्होंने तेजी से आधुनिक होती पश्चिम की दुनिया को भारत की प्राचीन योग परंपरा से परिचय कराया। वे 1920 में अमेरिका गए और कई यात्राएं की। लोगों के बीच व्याख्यान दिया, लेख लिखे। उनकी आध्यात्मिक कृति 'योगी कथामृत' को लोगों ने काफी पसंद किया है। परमहंस योगानंद ने ‘क्रिया योग’ को एक प्राचीन योग पद्धति बताया, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिडी महाशय ने फिर से जीवित किया था। इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते हैं, जो ऐसी तकनीक पर आधारित होते हैं, जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज करना, शान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है। उन्होंने इस तथ्य को स्थापित किया कि ‘क्रिया योग’ ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। 5 जनवरी, 1893 को पैदा हुए परमहंस योगानंद का जीवन दिलचस्प रहा है। उनके बालक मुकुन्दलाल घोष के परमहंस योगानंद बनने की कहानी रोचक है। परमहंस योगानंद आध्यात्मिक गुरु और योगी थे, जिन्होंने दुनिया को क्रिया योग का उपदेश दिया। वे उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में पैदा हुए थे और अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। ठेठ बंगाली परिवार में उनका लालन-पालन हुआ। पिता भगवती चरण घोष बड़े गणितज्ञ और तर्कशास्त्री थे। माता दयालु स्वभाव की थीं। बच्चों को रामायण और महाभारत की कथा सुनाती और उनमें संस्कार डालतीं। ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ द योगी’ में वे एक जगह लिखते हैं कि माता-पिता के कारण ही उनके भीतर योग में खास प्रकार की रुचि पैदा हुई। इसके पीछे उनके पिता की लहिड़ी महाशय से हुई दिलचस्प मुलाकात भी एक कारण है। बालक मुकुन्द भारतीय संतों की कहानियां सुन-सुनकर बड़े हुए। उनके दिलो-दिमाग पर लहिड़ी महाशय की कथाओं ने गहरा प्रभाव डाला था। घर की दीवार पर टंगी लहिड़ी महाशय की तस्वीर देखकर वे प्रफुल्लित होते। उन्होंने स्वयं लिखा है- ‘बचपन में एक बार जब बहुत बीमार हुआ तो लहिड़ी महाशय में अटूट विश्वास ने ही जीवित रखा।’ फिर जैसे-जैसे वे बड़े हुए उनका लगाव लहिड़ी महाशय के शिष्य युक्तेश्वर के प्रति बढ़ा। योग की शिक्षा के संबंध में परमहंस योगानंद लिखते हैं कि उन्होंने अपनी आंतरिक ऊर्जा से सुखद अनुभवों को एकत्र करना सीखा। साथ ही यह भी जाना कि उसे कैसे अन्य लोगों के साथ साझा किया जा सकता है। इन भावों से उन्मादित होकर उन्होंने उपनिषद में लिखी बात ‘ईश्वर रस है’ को महसूस किया। परमहंस योगानंद के गुरु युक्तेश्वर कभी ईश्वर के साक्षात दर्शन में विश्वास नहीं रखते थे। वे मानते थे कि ईश्वर की प्राप्ति रोज होने वाली एक नई प्रकार की खुशी के समान है, जिससे कभी कोई ऊब नहीं होती। क्रिया योग से होने वाली मानसिक तृप्ति के बाद ही उसके होने के प्रमाण मिलने लगते हैं। यही कारण है कि ध्यान के दौरान ही एक व्यक्ति को ईश्वरीय शक्ति का एहसास होता है और तमाम शंकाओं के उत्तर उसे मिल जाते हैं। प्रारंभ में योग को विस्तार देने में योगानंद की कोई रुचि नहीं थी, लेकिन गुरु ने उन्हें ईश्वर प्राप्ति के महत्व को समझाया और ज्यादा से ज्यादा लोगों तक योग को पहुंचाने की सलाह दी। इसके साल भर बाद 1918 में परमहंस योगानंद ने रांची के कासीमबाजार में एक स्कूल का स्वरूप दिया। उसका नाम रखा- ब्रह्मचर्य विद्यालय, जहां ऋषियों के शैक्षणिक आदर्शों से लोगों का परिचय कराया जाने लगा। यहां छात्रों को कृषि और अन्य विषयों के साथ-साथ योग की शिक्षा दी जाने लगी। उन्हें योग, एकाग्रता और ध्यान की शिक्षा दी गई। 1916 में परमहंस योगानंद ने योगोडा के सिद्धांत को विकसित किया। कहते हैं कि यह शारीरिक विकास की अद्भुत पद्धति है। ध्यान हो कि किसी भी व्यक्ति के भीतर ऊर्जा को पैदा करना उसकी स्वेच्छा के बिना असंभव है। परमहंस कहते हैं कि यही कारण था कि मुझे अपने छात्रों को योगोडा की कला सिखानी थी, क्योंकि इसके जरिए उनके अंतस्थ को ब्रह्मांड में मौजूद लौकिक शक्ति से भरा जा सके। रांची का वह स्कूल एक संस्था का रूप प्राप्त कर चुका है। स्कूल में कई विभाग खुल गए हैं। इसकी कई शाखाएं देश के अलग-अलग जगहों पर योगोड़ा सत्संग के नाम से शुरू हो गई हैं। रांची के मुख्यालय में चिकित्सा विभाग भी है। यहां के चिकित्सक समाज के गरीब लोगों का इलाज करते हैं। इस चिकित्सालय में प्रत्येक वर्ष साल 18,000 लोगों का इलाज होता है। ‘योग’ की शिक्षा देते हुए योगडा ने अपने 100 से अधिक वर्ष पूरे कर लिए हैं। तकनीकी रूप से सक्षम समाज के साथ तालमेल बिठाते हुए इस संस्थान ने अपनी पहुंच को बढ़ाने और समाज के हर वर्ग तक पहुंचने के लिए सीडी, डीवीडी, पत्रिका, ई-न्यूज, पुस्तकों के माध्यमों का बेहतर उपयोग किया है। हर वर्ष शरद-संगम का आयोजन होता है, जिसमें हफ्ते भर क्रिया-योगा का प्रशिक्षण दिया जाता है। उन्हें इस बात से अवगत कराया जाता है कि ‘क्रिया-योग’ ईश्वर से साक्षात्कार की एक प्रभावी विधि है, जिसके पालन से अपने जीवन को संवारा और ईश्वर की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। बहरहाल, अपने लक्ष्य को प्राप्त कर परमहंस योगानंद ने 7 मार्च 1952 को अपना शरीर त्याग दिया। हिन्दुस्थान समाचार/ब्रजेश

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