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जिन लोगों ने लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार और जरूरतमंदों तक आहार के अभियान को सौंप दिया है अपना जीवन

शंभु नाथ चौधरी रांची, 28 नवंबर (आईएएनएस)। करीब 20 साल पहले झारखंड के हजारीबाग में हुई एक घटना ने मोहम्मद खालिद की जिंदगी बदलकर रख दी। एक विक्षिप्त महिला ने सड़क के किनारे दम तोड़ दिया। उसकी लाश घंटों वहीं पड़ी रही। उसपर मक्खियां भिनभिनाती रहीं। बेतरह बदबू फैलती रही। लोग सामने से गुजरते रहे। किसी ने परवाह न की। सड़क से गुजरते इन्हीं राहगीरों में एक मो. खालिद भी थे, जो लाश की दुर्गति देखकर बेचैन हो उठे। उन्होंने किसी तरह एक ठेले का जुगाड़ किया। सामने से गुजरते लोगों से गुहार लगायी तो एक ने हिम्मत करते हुए लाश उठाकर ठेले पर रखने में उनकी मदद की। उन्होंने पास की दुकान से कफन और अंतिम संस्कार के सामान खरीदे। लाश को अकेले श्मशान ले जाकर सम्मान के साथ मुखाग्नि दी। इस घटना ने मो. खालिद की जिंदगी का मकसद बदल दिया। उन्होंने संकल्प लिया कि वह ऐसी किसी भी लावारिस लाश की दुर्गति नहीं होने देंगे। कुछ महीने बाद ही उनकी इस मुहिम में उनके दोस्त हजारीबाग के मशहूर सेंट कोलंबस कॉलेज में डेमोंस्ट्रेटर के रूप में काम करने वाले तापस चक्रवर्ती भी जुड़ गये। कायदे से गिनती तो नहीं की है, लेकिन इन दो दोस्तों की जोड़ी लगभग पांच-छह हजार लाशों को सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का हक दिला चुकी है। कोरोना संक्रमण के दौर में जब अपने कहे जाने वाले तमाम रिश्ते भी बेगाने हो गये थे, तब मो. खालिद और तापस चक्रवर्ती ने दिन-रात देखे बगैर खुद की जिंदगी खतरे में डालकर हजारीबाग से लेकर रांची तक तकरीबन पांच सौ शवों का अंतिम संस्कार किया। लोग इन दोनों को पूरे झारखंड में लाशों के मसीहा के रूप में जानते हैं। झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में 2010 में मॉर्चुरी लावारिस लाशों से पूरी तरह भर गयी थी। लाशें सड़ने लगी थीं और बदबू पूरे परिसर में फैलने लगी थी। प्रशासन को भी कोई उपाय नहीं दिख रहा था। यह खबर जब मो. खालिद और तापस चक्रवर्ती तक पहुंची तो दोनों रांची आये और सभी लाशों के सामूहिक अंतिम संस्कार का बीड़ा उठाया। दोनों ने एक साथ लगभग डेढ़ सौ लाशों का अंतिम संस्कार कराया। इसके बाद वर्ष 2016 तक रिम्स में लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार का जिम्मा यही दोनों संभालते रहे। इन दोनों को देखकर रांची में कई लोग प्रेरित हुए और मुक्ति नाम की एक संस्था बनी, जिसने 2016 के बाद से यह जिम्मा उठा रखा है। कोरोना संक्रमण की पहली और दूसरी लहर के समय जब रांची में शवों के अंतिम संस्कार को लेकर चुनौती खड़ी हुई, तब फिर से मसीहा बनकर खड़े हुए मो. खालिद। यहां विद्युत चालित शवदाह गृह की मशीन खराब हो गयी थी और इसे चलाने वाले भाग खड़े हुए थे, तब मो. खालिद ने अकेले दम पर यह कठिन मोर्चा संभाला। उन्होंने 15 दिनों में यहां कोविड से मरनेवाले 96 लोगों का अंतिम संस्कार किया। हजारीबाग और रांची के अलावा चतरा और रामगढ़ तक जाकर उन्होंने कई लावारिस लाशों को उनका आखिरी हक दिलाया है। मो. खालिद और तापस चक्रवर्ती सिर्फ लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार ही नहीं करते, बल्कि अगर मरनेवाला हिंदू हुआ तो उनके अस्थि शेष को साल में एक या दो बाहर बनारस ले जाकर गंगा में प्रवाहित करते हैं। प्रशासन और स्थानीय दाताओं ने अब इन्हं दो गाड़ियां भी उपलब्ध करायी हैं, जिनसे लाशों को श्मशान-कब्रिस्तान तक ले जाने में सहूलियत होती है। कुछ और लोग हैं, जो अब इस मुहिम में उनके साथ जुड़े हैं। उन्होंने मुर्दा कल्याण समिति नामक एक संस्था बनायी है। कोरोना काल में जब खून के रिश्ते वाले भी मरने वालों से किनारा कर लेते थे, तब लाशों का अंतिम संस्कार करते हुए क्या आप कभी विचलित नहीं हुए? इस सवाल पर मो. खालिद ने आईएएनएस से कहा कि यह दौर ही ऐसा था, जब हमें दिल पर पत्थर रखकर दिन-रात यह काम करना था। हमने इसे ही अपना सबसा बड़ा धर्म माना। वह बताते हैं कि एक बार उनका कलेजा तब दहल उठा, जब कोरोना संक्रमित एक महिला के निधन के बाद उनके पति स्ट्रेचर को छूना चाहते थे, लेकिन उनके जवान बेटे ने पिता को धमकी दी कि अगर वह ऐसा करते हैं तो उन्हें घर से बाहर निकाल देगा। मो. खालिद कहते हैं कि यह खुदगर्जी थी या उनकी मजबूरी, नहीं जानता लेकिन इस घटना ने उन्हें बहुत बेचैन किया। मो. खालिद और तापस चक्रवर्ती ने 2015 में हजारीबाग शहर में एक और मुहिम शुरू की। भूखों और जरूरतमंदों को खाना खिलाने का। उन्होंने एक रोटी बैंक बनाया है, जहां लोग अपने घरों से रोटियां और भोजन खुद पहुंचाते हैं। फिर यह खाना भिखारियों, गरीबों की बस्तियों और अस्पताल में मरीजों के जरूरतमंद परिजनों के बीच बांटा जाता है। पिछले छह सालों से यह अभियान निरंतर जारी है। अब लोग शादी-विवाह, जन्मदिन आदि विभिन्न अवसरों पर रोटी बैंक को भोजन उपलब्ध कराते हैं और फिर यह जरूरतमंदों तक पहुंच जाता है। तापस चक्रवर्ती अब कॉलेज से रिटायर हो चुके हैं और मो. खालिद ने अपने पैथोलॉजी सेंटर का काम परिजनों को सौंप दिया है। इन दोनों का पूरा वक्त अब लाशों के सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार और जरूरतमंदों तक रोटी पहुंचाने के अभियान में ही गुजरता है। दोनों की दोस्ती की लोग मिसालें देते हैं। --आईएएनएस एसएनसी/आरजेएस

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