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स्मृति शेषः मौलाना वहीदुद्दीन खां के साथ एक युग का अवसान

अताउल्लाह कोरोना के काले साए अपने निर्मम पंजों के बल पर तेजी से जीवनकाल को छोटा कर रहे हैं। एक के बाद एक, कई महान हस्तियां हमारे बीच से उठती जा रही हैं। कोरोना के कहर के आगे तमाम इंसानी कोशिशें बौनी पड़ती जा रही हैं। न जाने कब किसी मौत की खबर आ जाए, यह सोच कर हर आने वाला दिन खौफ के साए में गुजर रहा है। पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी हस्तियां कोरोना की शिकार हो गई हैं, जिनके लिए पूरा देश शोककुल है। ऐसी ही एक एक महान विचारक, युगदृष्टा, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध लेखक और चिंतक मौलाना वहीदुद्दीन खान की शख्सियत है जिन्हें कोरोना के क्रूर पंजों ने हमसे छीन लिया। मौलाना वहीदुद्दीन खान का निधन केवल हमारे बीच एक व्यक्तित्व का उठ जाना नहीं है बल्कि एक युग का अंत है। मौलाना के निधन के साथ ऐसा लगता है जैसे कोरोना ने पिछले कुछ दिनों में हमसे कई सदियां छीन लीं। जो बादाकश (हितकारी) थे पुराने वह उठते जाते हैं कहीं से आब बका-ए-दवाम (अमृत) ले साकी। मौलाना वहीदुद्दीन खान उन समकालीन विचारकों में से एक हैं जिन्होंने हमारे समय पर गहरी छाप छोड़ी है। देश में विभिन्न धर्म और संप्रदायों को एकजुट करने और उनके बीच संवाद और चर्चा का माहौल बनाने में मौलाना की भूमिका अविस्मरणीय है। मौलाना को बिरादराने-वतन के बीच शांति के दूत के रूप में जाना जाता था। यही वजह है कि उनके इंतेकाल के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बहुत से लोगों ने शोक व्यक्त किया है। मौलाना वहीदुद्दीन खान का जन्म 1925 में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ में हुआ था। उन्होंने आज़मगढ़ के एक मदरसे में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा की ओर रुख किया और अंग्रेजी में महारत हासिल कर ली। मौलाना वहीदुद्दीन खान ने इस्लामी शिक्षाओं के अमन और शांति के पहलू को दुनिया के सामने लाने का अपनी जिंदगी का ध्येय बना लिया था। यही कारण है कि उनके तमाम लेखों और भाषणों में इस्लाम धर्म का पैगाम-ए-अमन नुमायां तौर पर नजर आता है। इस सिलसिले में अक्सर वह एक बात कहा करते थे कि “मैंने एक ख्वाब देखा था। मैं कहीं जा रहा था। मैंने देखा कि महात्मा गांधी सड़क पर अकेले बैठे हैं। मैं उनके पास जाकर चुपचाप खड़ा हो गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद, उन्होंने अपनी जेब से दो कलम निकाले और मुझे दिए’’। उनका कहना था कि मेरे लिए यह इशारा काफी था। इस ख्वाब के जरिए बापू का संदेश मेरे लिए यही था कि मैं जो काम कर रहा हूं यानी अमन फैलाने का, उसे लिखकर जारी रखूं। मौलाना ने इस्लाम के अमन के पैगाम को आम करने के लिए सेंटर फॉर पीस एण्ड स्पिरिचुअलिटी (सीपीएस इंटरनेशनल) की स्थापना की। इसके तहत उन्होंने सैकड़ों किताबें लिखीं। ‘अल-रिसाला’ नाम की एक मासिक पत्रिका उनके संपादन में लगातार प्रकाशित होती रही जिसके जरिए वह अपने विचारों को दुनिया के सामने प्रस्तुत करते रहे हैं। उन्होंने अपनी लेखनी में इस्लामी जिहाद के नाम पर हिंसा फैलाने वालों को कुरान और हदीस की रौशनी में जवाब दिया। कुरान का असान और आम भाषा में अनुवाद भी किया। उनके जरिए अनुवाद किया गया कुरान भारत से लेकर पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। मौलाना वहीदुद्दीन खान ने विशेष रूप से मुसलमानों के साथ देश के दूसरे सभी धर्मों के मानने वालों के बीच सद्भाव स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। उन्होंने हमेशा मुसलमानों से उकसावे को छोड़कर सुलह-पसंदी (शांति स्थापित करने) पर अमल करने का आग्रह किया। विशेष रूप से बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर उन्होंने मुसलमानों को अपने दावे से हटने की सलाह दी। इस सम्बंध में उन्हें मुसलमानों की घोर आलोचना का सामना भी करना पड़ा। उनपर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबी होने के भी आरोप लगते रहे लेकिन वह जिंदगीभर अपने रुख पर कायम रहे। मौलाना को उनकी विद्वता और सामाजिक सेवाओं के लिए कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। मौलाना के शांति प्रयासों के लिए भारत सरकार ने उन्हें जनवरी 2000 में तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण और जनवरी 2021 में दूसरे सबसे बड़े नागरिक पुरस्कार पद्मविभूषण से सम्मानित किया। 96 वर्ष की आयु में 21 अप्रैल बुधवार की रात लगभग 10 बजे दिल्ली के अपोलो अस्पताल में कोरोना से लड़ते हुए अमन और शांति का यह सूरज हमेशा के लिए अस्त हो गया। (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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