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स्मृति शेषः तुलसी व कबीर की परंपरा के साहित्यकार नरेन्द्र कोहली

डॉ. प्रभात ओझा साहित्यकार नरेन्द्र कोहली के नहीं रहने पर अपने तईं एक संस्मरण से बात शुरू होती है। वर्ष 2014 की सम्भवतः 30 मार्च की तारीख थी। मुंबई में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन चल रहा था। कोहली जी तीनदिवसीय अधिवेशन के सभापति थे। इस नाते अंतिम दिन साहित्य परिषद् के परिसंवाद में भी मंच पर उनकी मौजूदगी थी। मैंने आमंत्रित वक्ता की हैसियत से अपनी बात रखनी शुरू की। संदर्भ आने पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के भारत में भी दखल और फोर्ड फाउंडेशन का जिक्र आया। वक्ता को ख्याल न रहा कि भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को अपनी ओर से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया है। तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। फोर्ड फाउंडेशन की वेबसाइट पर उससे चंदा लेने वालों में गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेजर्ट इकॉलॉजी (गीर) भी शामिल था। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का अंदाजा वक्ता को नहीं हो, ऐसा नहीं था। फिर भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में मंच के नीचे बैठे प्रतिनिधि प्रतिवाद करेंगे, यह भान नहीं था। यहां तो विचार-विनिमय हुआ ही करता है। इसके बावजूद, कुछ प्रतिनिधियों ने आपत्ति रखी कि यहां राजनीति की बात नहीं हो सकती। मैंने व्यवस्था मांगने के लिहाज से कोहली जी की ओर प्रश्न रखा कि क्या साहित्य अब समाज की बात नहीं करता, राजनीति भी तो समाज का अंग है। सभापति की कुर्सी से उन्होंने वक्ता को अपनी बात जारी रखने की अनुमति दी। हंगामा शांत हो गया। यह सामान्य बात न थी कि कोहली जी ने इस तरह की अनुमति दी। वे सहज-सरल हृदय किंतु अपने सिद्धांतों के प्रति सख्त माने जाते रहे। इसके बावजूद साहित्य में भी समाज और राजनीति पर बहस को वे गलत नहीं मानते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में फोर्ड फाउंडेशन के प्रति नरेन्द्र मोदी की सख्ती भी इतिहास में दर्ज है। फिलहाल यहां बात कोहली जी की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मुंबई अधिवेशन में उनकी यह छवि साहित्य में विभिन्न मतावलंबियों को मौका देने वालों की तरह है। असल में कोहली का साहित्य भारतीय जनमानस का प्रतिबिंब है। यहां का जनमानस परंपरा से ही विश्व बंधुत्व वाला रहा है। परिवार, समाज और देश के साथ मानव मात्र के लिए चिंतित भारतीय साहित्य अपनी अलग पहचान रखता है। स्वयं नरेन्द्र कोहली अपनी इसी खूबी के चलते आधुनित तुलसी की संज्ञा से विभूषित हुए। जिस तरह गोस्वामी तुलसीदास ने ‘स्वांतः सुखाय रघुनाथ गाथा’ की रचना की, उसी तरह कोहली ने भी विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़कर साहित्य सृजन किया। दोनों के बीच यह भी समानता है कि उनकी रचनाएं लोक-रंजक बनी। नरेन्द्र कोहली भी अक्सर कहा करते थे कि जैसा राम चाहेंगे वैसा ही होगा। सच यह है कि मुंशी प्रेमचंद ने भी भारतीय संस्कारों की ही कथा लिखी। कमल किशोर गोयनका कहते हैं कि कोहली भारतीय चिंतन परंपरा के सबसे बड़े लेखक थे। कोहली ने भी भारतीय महापुरुषों को नायक बनाया और उनके नायकत्व को जनमानस में स्थापित किया। पौराणिक कथाओं को उन्होंने जनसुलभ बनाया। यह काम गोस्वामी तुलसीदास की परंपरा का ही निर्वाह था। खास बात है कि जब प्रेमचंद के साथ पाठक तॉलस्तोय, मैक्सिम गोर्की, आचार्य चतुरसेन, रमाकांत रथ, अमृता प्रीतम और कुशवाहाकांत को पढ़ना चाहते थे, उसी समय नरेन्द्र कोहली भी पढ़े जाने लगे। उन्होंने उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी के अलावा संस्मरण, निबंध जैसी विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं। महाभारत की कथा को उपन्यास ‘महासमर’ के आठ खंडों में समाहित करना उन्हीं की खूबी है। रामकथा को भी उन्होंने चार खंडों में लगभग 1800 पृष्ठों में प्रस्तुत किया। नरेंद्र कोहली के चर्चित उपन्यासों में पुनरारंभ, आतंक, आश्रितों का विद्रोह, साथ सहा गया दुख, मेरा अपना संसार, दीक्षा, अवसर, जंगल की कहानी, संघर्ष की ओर, युद्ध, अभिज्ञान, आत्मदान, प्रीतिकथा, कैदी, ‘निचले फ्लैट में’ आदि प्रमुख हैं। कथा संग्रह में परिणति, कहानी का अभाव, नमक का कैदी आदि को याद कर सकते हैं। साहित्य जगत ने उनकी लेखनी का भरपूर सम्मान किया। उन्हें शलाका सम्मान, साहित्य भूषण, उत्तर प्रदेश हिंदी का सम्मान और नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ सहित कई पुरस्कार- सम्मान हासिल हुए। सच यह है कि किसी रचनाकार के लिए सबसे बड़ा सम्मान असंख्य पाठकों के बीच बने रहना ही है और नरेन्द्र कोहली इसी तरह के साहित्यकार थे। (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार की पाक्षिक पत्रिका ‘यथावत’ के समन्वय संपादक हैं।)

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