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मेहंदी हसनः ...तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे

पुण्यतिथि (13 जून) पर विशेष रमेश सर्राफ धमोरा गजल गायक मेहंदी हसन का भारत से विशेष लगाव था। उन्हें जब भी भारत आने का मौका मिलता वे दौड़े चले आते थे। राजस्थान में शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती रही थी। यहां की मिट्टी से उन्हें सदैव विशेष प्रकार का लगाव रहा, इसी कारण पाकिस्तान में आज भी मेहंदी हसन के परिवार में सब लोग शेखावाटी की भाषा में बातचीत करते हैं। मेहंदी हसन ने सदैव भारत-पाकिस्तान के मध्य एक सांस्कृतिक दूत की भूमिका निभाई तथा जब-जब उन्होंने भारत की यात्रा की तब-तब भारत-पाकिस्तान के मध्य तनाव कम हुआ व सौहार्द का वातावरण बना। वो दिल को दिल से जोड़ने वाले गायक थे। मेहंदी हसन का जन्म 18 जुलाई 1927 को राजस्थान में झुंझुनू जिले के लूणा गांव में अजीम खां मिरासी के घर हुआ था। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के वक्त पाकिस्तान जाने से पहले उनके बचपन के 20 वर्ष गांव में ही बीते थे। मेहंदी हसन को गायन विरासत में मिला। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में गंधार, ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान भी अच्छे कलाकार थे। इस कारण उस वक्त भी उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। मेहंदी हसन कहते थे कि 'बुलबुल ने गुल से, गुल ने बहारों से कह दिया, एक चौदहवीं के चांद ने तारों से कह दिया, दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं, एक दिलरूबा है दिल में, तो हूरो से कम नहीं।'- उनके गले से निकले यह शब्द हर प्यार करने वाले की आवाज बन जाते हैं। उनकी गजलों ने जैसे लोगों के अन्दर का खालीपन पहचान बड़ी खूबी से उसे भर दिया। 'न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी की दिल का करार हूं। जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूं।'- कहते-कहते मेहंदी हसन साहब एक बड़ी बात कह जाते हैं- 'तन्हा-तन्हा मत सोचाकर, मर जावेगा, मर जावेगा, मत सोचाकर..।' उनके जाने के बाद हम कह देते हैं कि लो, अब हम नहीं सोचेंगे। पर आपने तो हमें जिन्दगी भर सोचने का बहाना दे दिया। पाकिस्तान जाने के बाद भी मेहंदी हसन ने गायन जारी रखा तथा वे ध्रुपद की बजाय गजल गाने लगे। वे अपने परिवार के पहले गायक थे जिसने गजल गाना शुरू किया थ। 1952 में वे कराची रेडियो स्टेशन से जुड़कर अपने गायन का सिलसिला जारी रखा तथा 1958 में वे पूर्णतया गजल गाने लगे। उस वक्त गजल का विशेष महत्व नहीं था। शायर अहमद फराज की गजल- 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ' -से मेहंदी हसन को पहली बार अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस गजल को मेहंदी हसन ने शास्त्रीय पुट देकर गाया था। भारत से पाकिस्तान जाने के बाद मेहंदी हसन पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना चुके थे। 1978 में मेहंदी हसन अपनी भारत यात्रा के दौरान गजलों के एक कार्यक्रम के लिए सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आए थे। उनकी इच्छा पर प्रशासन द्वारा उन्हें उनके पैतृक गांव राजस्थान में झुंझुनू जिले के लूणा ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रुकवा दी। गांव में सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर बना था, जहां वे रेत में लोटपोट होने लगे। उस समय जन्मभूमि से ऐसे मिलन का नजारा देखने वाले भी भाव विभोर हो उठे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे मां की गोद में लिपटकर रो रहे हों। उन्होंने लोगों को बताया कि बचपन में यहां बैठकर वे भजन गाया करते थे। जिन लोगों ने मेहंदी हसन को नहीं देखा, वे भी उन्हें प्यार और सम्मान करते हैं। शायद ऐसे ही वक्त के लिए मेंहदी हसन ने यह गजल गाई-'मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।' 1993 में मेहंदी हसन अपने पूरे परिवार सहित एक बार पुनः अपने गांव लूणा आये। इसी दौरान उन्होंने गांव के स्कूल में बनी अपने दादा इमाम खान व मां अकमजान की मजार की मरम्मत करवायी व पूरे गांव में लड्डू बंटवाये थे। आज मजार बदहाली की स्थिति में वीरान और सन्नाटे से भरी है। यह मजार ही जैसे मेहंदी हसन को लूणा बुलाती रहती थी। मानो रेत के धोरों में हवा गुनगुनाने लगती है- 'भूली बिसरी चंद उम्मीदें, चंद फसाने याद आए, तुम याद आए और तुम्हारे साथ जमाने याद आए।' उस वक्त उनके प्रयासों से ही गांव में सड़क बन पायी थी। मेहंदी हसन ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी व दादरा बड़ी खूबी के साथ गाते थे। इसी कारण लता मंगेशकर कहा करती हैं कि मेहंदी हसन के गले में तो स्वयं भगवान बसते थे। पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है जैसी मध्यम सुरों में ठहर-ठहरकर धीमे-धीमे गजल गाने वाले मेहंदी हसन 'केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देश' जैसी राजस्थान की सुप्रसिद्व मांड को भी उतनी ही शिद्दत के साथ गाया है। उनकी राजस्थानी जुबान पर भी उर्दू जुबान जैसी पकड़ थी। मेहंदी हसन को गजल का राजा माना जाता है। उन्हें खां साहब के नाम से भी जाना जाता है। वैसे तो गजल के इस सरताज पर पाकिस्तान फख्र करता था। मगर भारत में भी उनके मुरीद कुछ कम न थे। मेहंदी हसन को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। जनरल अयूब खान ने उन्हें तमगा-ए इम्तियाज। जनरल जिया उल हक ने प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस और जनरल परवेज मुशर्रफ ने हिलाल-ए-अम्तियाज पुरस्कार से सम्मानित किया था। इसके अलावा भारत ने 1979 में सहगल अवॉर्ड से सम्मानित किया। मेहंदी हसन की झुंझुनू यात्राओं के दौरान उनसे जुड़े रहे नरहड़ दरगाह के पूर्व सदर मास्टर सिराजुल हसन फारूकी बताते थे कि मेहंदी हसन साहब की झुंझुनू जिले के नरहड़ स्थित हाजिब शक्करबार शाह की दरगाह में गहरी आस्था थी। वो जब भी भारत आये तो नरहड़ आकर जरूर जियारत करते रहें हैं। वो चाहते थे कि मेहंदी हसन की याद को लूणा गांव में चिरस्थायी बनाये रखने के लिये सरकार द्वारा उनके नाम से लूणा गांव में संगीत अकादमी की स्थापना की जानी चाहिये ताकि आने वाली पीढ़ियां उन्हें याद कर प्रेरणा लेती रहें। मेहंदी हसन के बारे में मशहूर कव्वाल दिलावर बाबू का कहना है कि यह हमारे लिये बड़े फख्र की बात है कि उन्होने झुंझुनू का नाम पूरी दुनिया में अमर किया। उन्होंने गजल को पुनर्जन्म दिया। दुनिया में ऐसे हजारों लोग हैं जो उनकी वजह से गजल गायक बने। उन्होंने गजल गायकी को एक नया मुकाम दिया। बचपन में मेहंदी हसन को गायन के साथ पहलवानी का भी शौक था। लूणा गांव में मेहंदी हसन अपने साथी नारायण सिंह व अर्जुन लाल जांगिड़ के साथ कुश्ती में दाव-पेंच आजमाते थे। वक्त के साथ उनके संगी-साथी भी दुनिया छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है। मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे- मेहंदी हसन की गायी यह प्रसिद्व गजल आज यथार्थ बन गयी है। 13 जून 2012 को पाकिस्तान के कराची शहर में पूरी दुनिया में अपने चाहने वालों को बिलखता छोड़ मेहंदी हसन दुनिया से दूर जा चुके हैं। अब हमें याद रहेंगी तो बस उनकी गायी अमर गजलें व उनकी यादें। उनकी गजलें और हमारे जज्बात आपस में बातें करते हैं। इतनी नजदीकियां शायद हम किसी से ख्वाबों में सोचा करते हैं। (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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