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राज्‍यपाल को संविधान धर्म का पाठ पढ़ाती लाशों के ढेर पर बैठीं ममता

डॉ. मयंक चतुर्वेदी बंगाल जल रहा है। लोगों की मौत दो तरह से हो रही हैं, एक कोविड का महासंकट जो कहीं भी लोगों की जान ले रहा है तो दूसरा सबसे बड़ा कारण राजनीतिक- वैचारिकी है, या तो मेरे साथ आओ या अपनी जान गंवाओ। कहना होगा भारत में पश्चिम बंगाल को छोड़कर इस समय कोई राज्य नहीं, जहां जीवन की कीमत इतनी भी नहीं रही कि कोई खुलकर अपने विचारों का प्रदर्शन कर सके। सत्ता पक्ष की ममता बनर्जी इस तरह से मौत के चल रहे तांडव पर मौन साध कर रखेंगी, किसी ने सोचा नहीं था, जबकि यही वे ममता दीदी हैं जो छोटी-छोटी बातों पर भाजपा की केंद्र व राज्य सरकारों को कोसती नजर आती हैं । वस्तुत: बेशर्मी की हद तो यह है कि जो खुद ममताजी राजधर्म, लोकधर्म और संविधान धर्म का पालन स्वयं मुख्यमंत्री रहते हुए नहीं कर पा रहीं, वे आज राज्यपाल को बता रही हैं कि उनका संवैधानिक धर्म क्या है? यह तो केंद्र की मोदी सरकार का और राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द का धन्यवाद है जो उन्होंने जगदीप धनखड़ जैसे सख्त और कानूनविज्ञ को राज्यपाल बनाकर पश्चिम बंगाल भेजा। धनखड़ के संविधान सम्मत नियमों से चलने के आग्रह के बाद जब यहां इतना बुरा हाल है, तब यदि कोई बहुत सहज व्यक्ति यहां आते तो स्थिति कितनी भयानक होती, इसका अंदाजा आज सहज ही लगाया जा सकता है। पश्चिम बंगाल से हर रोज अनेक तस्वीरें और वीडियो लगातार सामने आ रही हैं, जिन्हें देखते ही दो प्रतिक्रियाएं ह्दय की आह के साथ बाहर निकल रही हैं, पहली की सिस्टम को उखाड़ फेंकों, जहां लोकतंत्र का सरेआम मजाक उड़ाया जा रहा है, अभिव्यक्ति की आजादी तो छोड़िए अभी तो लोगों को अपनी जान के लाले पड़े हुए हैं। दूसरा इन दृष्यों ने रात की नींद उड़ा दी है। महिलाओं, बुजुर्गों और जवान बेटियों के रुदन तथा उनके साथ, उनके परिवारजन के साथ घटी घटनाएं चित्कार-चित्कार कर कह रही हैं, कोई तो सुनो हमारे दर्द को। जिस भारतीय जनता पार्टी को विकास के लिए और परिवर्तन की आस के स्वप्न के साथ हमने लाना चाहा, क्या उसकी इतनी भयंकर सजा गांधी के भारत में मिलना चहिए ? गांधीजी के नाम से याद आया, वस्तुत: पश्चिम बंगाल के आज के दृष्य 'मनोज सिंह' के उस ऐतिहासिक लेख 'कथा व्यथा की कहना मत' की याद दिला रहे हैं, जिसमें उन्होंने नोआखाली का जिक्र किया है। उन तमाम अल्पसंख्यक (मुसलमानों) ने कभी अविभाजित भारत के इसी बंगाल में नोआखाली जिले के अतर्गत आने वाले रामगंज, बेगमगंज, रायपुर, लक्ष्मीपुर, छागलनैया और सन्द्विप इलाके (जो दो हज़ार से अधिक वर्ग मील में है) दंगे के बाद वो पूरा इलाका हिन्दुओं की लाशों से पाट दिया था । एक सप्ताह तक बे रोक-टोक हुए इस नरसंहार में 5000 से ज्यादा हिन्दू मारे गए थे। सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और हजारों हिंदू-पुरुषों और महिलाओं को जबरन इस्लाम क़बूल करवाया गया था। उसके बाद लगभग 50 हजार से 75 हजार हिन्दुओं को कोमिला, चांदपुर, अगरतला और अन्य स्थानों के अस्थायी राहत शिविरों में आश्रय दिया गया था । इतिहास का यह आक्रोशित कर देनेवाला सच है कि मजहबियों ने चुना भी तो कौन सा दिन, 10 अक्टूबर 1946 , लक्ष्मी पूजा का पावन दिन। नोआखाली के दुर्भाग्यशाली हिन्दू बंगालियों पर वो दिन वज्रपात बन कर टूट पड़ा था। क्षेत्र मुसलामानों का था। मुस्लिम लीग का पूरा वर्चस्व था। छह सितम्बर को ग़ुलाम सरवर हुसैनी ने, मुस्लिम लीग की सदस्यता ली थी और सात सितम्बर को ही उसने शाहपुर बाज़ार में, मुसलामानों को हिन्दुओं का नृशंस क़त्लेआम करने का आह्वान किया। उसका यह कथन कि हर मुसलमान हथियार उठाएगा और हिन्दुओं को किसी भी हाल में नहीं बक्शेगा। 12 अक्टूबर का दिन तय किया गया , इस वहशत को अंजाम देने के लिए । योजना के मुताबिक़, हमला सुनियोजित तरीके से किया गया और 12 अक्टूबर को ही जिले के कई प्रसिद्ध और धनाढ्य हिन्दुओं का क़त्ल हो गया। उसके बाद तो यह क़त्लो-ग़ारत पूरे हफ़्ते चलता रहा। मुसलमानों ने अपने आक़ाओं के इशारे पर वहशियत का वो नाच नाचा कि हैवानियत भी शर्मसार हो गई। हिन्दुओं का नरसंहार, बलात्कार, अपहरण, हिन्दुओं की संपत्ति की लूट-पाट, आगज़नी, धर्म परिवर्तन, सबकुछ किया उन नरपिशाचों ने। तात्पर्य यह कि शायद ही ऐसा कोई जघन्य कर्म रहा हो, जो तत्कालीन मुसलामानों ने उस दिन, हिन्दुओं के साथ नहीं किया। औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार, पत्नियों के सामने ही उनके पतियों की हत्या, पतियों की लाशों के सामने ही, औरतों का उसी वक्त धर्म परिवर्तन किया गया, और मरे हुए पति के लाश के सामने ही, उन्हीं आतताइयों में से किसी एक से बल पूर्वक निक़ाह भी करा दिया गया, जिन्होंने उनके ही पतियों का क़त्ल किया था। हैवानियत की कोई इन्तेहाँ नहीं थी । इसके बाद सात नवंबर 1946 गांधी जी ने, शांति और सांप्रदायिक सद्भाव बहाल करने के लिए, नोआखाली का न सिर्फ दौरा किया, बल्कि वो पूरे चार महीने तक वहीं डेरा जमाये रहे। लेकिन पीड़ितों का विश्वास वो नहीं जीत पाए। विश्वास बहाल करने की उनकी हर कोशिश नाक़ामयाब रही। फलतः विस्थापित हिन्दुओं का पुनर्वास भी नहीं हो पाया। शांति मिशन की इस विफलता के बाद दो मार्च को गांधी जी ने नोआखाली छोड़ दिया। बचे हुए अधिकतर हिन्दू, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और आसाम के हिन्दू बहुल इलाकों में चले गए। उसके बाद आप सभी को ज्ञात हो, नोआखली जिले के खिलपारा नामक स्थान में 23 मार्च 1946 को मुसलामानों ने ‘पाकिस्तान दिवस’ मनाया था। इसके तुरंत बाद ही कांग्रेस के नेतृत्व में भारत ने, देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। इस फैसले के बाद शांति मिशन को बर्खास्त कर दिया गया और राहत शिविरों को भी बंद कर दिया गया। और फिर 15 अगस्त 1947 भारत आज़ाद देश हो गया। आजादी के उल्लास ने नोआखाली में गिरे हर लाश पर विस्मृति का कफ़न डाल दिया। देश बंट गया पर वो दर्द आज भी अखंड है। वो दारुण इतिहास आज भी भारतीय मानस को हताहत करता है। वस्तुत: बंगाल फिर कुछ ऐसे ही कारणों से आज फिर चर्चा का केंद्र बना हुआ है। लेकिन इसी के साथ आज बड़ा प्रश्न यह भी है कि नोआखाली की हिन्दू हत्या के मामलों में क्या इसलिए इन अल्पसंख्यकों को माफ कर दिया गया, क्योंकि इन्हें अपने मजहब के मुताबिक अलग धर्म के आधार पर अलग देश मिल चुका था। जो मुसलमान भारत में रहे वे इस आधार पर कि वे भारत को अपना मानते हैं, भारत की सरजमी जिसमें कि सभी कुछ समाहित है, उसे उतना ही मानते हैं जितना कि वे अपने आराध्य को, किंतु यह क्या आज जब यहां की तस्वीरें आ रही हैं तो देखने में वही हरा रंग और टोपियां बहुसंख्या में, किसी को भी पकड़कर समूह में आकर ले जा रही हैं। लोग विवश हैं, जान बचाने के लिए भागने को मजबूर हैं। अब इस स्वतंत्र भारत में जिसका कि विभाजन ही धर्म के आधार पर यह कहकर हुआ कि हम दो अलग-अलग धर्म हैं, एक साथ नहीं रह सकते । फिर यह तृणमूल की आड़ में बहुसंख्यक हिन्दुओं के भारत में कौन सा खेला यहां खेला जा रहा है? वस्तुत: ममता की चुप्पी के क्या मायने हैं? वे राज्यपाल को राजधर्म समझा रही हैं, लेकिन उन हत्यारों को सजा ए मौत नहीं सुना रहीं जो समूह में आकर एकल हिन्दू को, उसके परिवार को निशाना बना रहे हैं। मौत की सजा सरे आम सुना रहे हैं। बेटियों के साथ खुले तौर पर बलात्कार कर रहे हैं। केन्द्रीय मंत्री को घायल करते हैं। आज देश उन तमाम बुद्धिजीवियों से यह बड़ा प्रश्न पूछ रहा है, जो हर छोटी बात को बड़ा करके लिखने व बोलने में विश्वास रखते हैं लेकिन बंगाल में हो रही घटनाओं पर चुप्पी साधकर बैठे हुए हैं। काश, ये लोग ममता से भी कुछ पूछ लें और अच्छा होता ममता दीदी भी राज्यपाल को राजधर्म का पाठ पढ़ाने से पूर्व स्वयं भी इस पाठ को याद कर लेतीं, जिसकी उन्होंने अभी हाल ही में तीसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में संविधान की रक्षा के लिए पद एवं गोपनीयता के साथ शपथ ली है। (लेखक फिल्म प्रमाणन बोर्ड की एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं पत्रकार हैं )

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