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महात्मा गांधी: अहिंसा, ईमानदारी, स्पष्टवादिता, सत्यनिष्ठा की मिसाल

महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (30 जनवरी) पर विशेष योगेश कुमार गोयल देश के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अविस्मरणीय योगदान से पूरी दुनिया सुपरिचित है। वे जीवन पर्यन्त देशवासियों के लिए आदर्श नायक बने रहे। अहिंसा की राह पर चलते हुए देश को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाने वाले गांधीजी ने पूरी दुनिया को अपने विचारों से प्रभावित किया। उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर कई किताबें भी लिखी, जो हमें आज भी जीवन की नई राह दिखाती हैं। उनके अनुभव, अहिंसा का उनका सिद्धांत, उनके विचार आज भी उतने ही सार्थक हैं, जितने उस दौर में थे। उनके जीवन के तीन महत्वपूर्ण सूत्र थे, जिनमें पहला था सामाजिक गंदगी दूर करने के लिए झाड़ू का सहारा। दूसरा, जाति-पाति और धर्म के बंधन से ऊपर उठकर सामूहिक प्रार्थना को बल देना। तीसरा, चरखा, जो आगे चलकर आत्मनिर्भरता और एकता का प्रतीक माना गया। गांधीजी अक्सर कहा करते थे कि प्रसन्नता ही एकमात्र ऐसा इत्र है, जिसे आप अगर दूसरों पर डालते हैं तो उसकी कुछ बूंदें आप पर भी गिरती हैं। वे कहते थे कि किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके कपड़ों से नहीं बल्कि उसके चरित्र से होती है। दूसरों की तरक्की में बाधा बनने वालों और नकारात्मक सोच वालों में सकारात्मकता का बीजारोपण करने के उद्देश्य से ही उन्होंने कहा था कि आंख के बदले आंख पूरी दुनिया को ही अंधा बना देगी। लोगों को समय की महत्ता और समय के सही सदुपयोग के लिए प्रेरित करते हुए उन्होंने कहा था कि जो व्यक्ति समय को बचाते हैं, वे धन को भी बचाते हैं और इस प्रकार बचाया गया धन भी कमाए गए धन के समान ही महत्वपूर्ण है। वह कहते थे कि आप जो कुछ भी कार्य करते हैं, वह भले ही कम महत्वपूर्ण हो सकता है किन्तु सबसे महत्वपूर्ण यही है कि आप कुछ करें। लोगों को जीवन में हर दिन, हर पल कुछ न कुछ नया सीखने के लिए प्रेरित करते हुए गांधीजी कहा करते थे कि आप ऐसे जिएं, जैसे आपको कल मरना है लेकिन सीखें ऐसे कि आपको हमेशा जीवित रहना है। महात्मा गांधी के विचारों में ऐसी शक्ति थी कि विरोधी भी उनकी तारीफ किए बगैर नहीं रह सकते थे। ऐसे कई किस्से सामने आते हैं, जिससे उनकी ईमानदारी, स्पष्टवादिता, सत्यनिष्ठा और शिष्टता की स्पष्ट झलक मिलती है। एकबार महात्मा गांधी, श्रीमती सरोजिनी नायडू के साथ बैडमिंटन खेल रहे थे। श्रीमती नायडू के दाएं हाथ में चोट लगी थी। यह देखकर गांधीजी ने भी अपने बाएं हाथ में ही रैकेट पकड़ लिया। श्रीमती नायडू का ध्यान जब इस ओर गया तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी और कहने लगी, ‘‘आपको तो यह भी नहीं पता कि रैकेट कौन-से हाथ में पकड़ा जाता है?’’ इस पर बापू ने जवाब दिया, ‘‘आपने भी तो अपने दाएं हाथ में चोट लगी होने के कारण बाएं हाथ में रैकेट पकड़ा हुआ है और मैं किसी की भी मजबूरी का फायदा नहीं उठाना चाहता। अगर आप मजबूरी के कारण दाएं हाथ से रैकेट पकड़कर नहीं खेल सकती तो मैं अपने दाएं हाथ का फायदा क्यों उठाऊं?’’ एकबार गांधीजी जैतपुर में हरिजनों तथा मेमन जाति के मोहल्ले में आयोजित एक सभा में भाषण दे रहे थे। मेमन जाति कठियावाड़ी मुसलमानों की एक विशेष जाति होती है। इस जाति के लड़के उन दिनों बहुत बिगड़े हुए, शरारती तथा आवारा किस्म के हुआ करते थे। जैसे ही गांधीजी ने अपना भाषण शुरू किया, उसी समय एक 10-12 वर्ष का लड़का भी सभास्थल पर पहुंचा और लोगों को धक्के देता हुआ मुंह में बीड़ी लगाए सबसे आगे जा पहुंचा तथा बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए अशिष्टतापूर्ण नजरों से गांधीजी की ओर देखने लगा। गांधीजी की नजर उस लड़के पर पड़ी तो उन्होंने अपना भाषण बीच में ही रोककर उस लड़के की ओर देखते हुए कहा, ‘‘अरे, देखो इतना छोटा-सा लड़का बीड़ी पी रहा है। अरे फेंक दे भाई, बीड़ी को फेंक दे।’’ गांधीजी के इतने सरल शब्दों का ही उस लड़के पर जादू-सा असर हुआ। उसने तुरंत बीड़ी मुंह से निकालकर फेंक दी तथा श्रोताओं के बीच शिष्टता से बैठकर बड़े ध्यान से गांधीजी का भाषण सुनने लगा। महात्मा गांधी एकबार चम्पारण से बेतिया रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे। गाड़ी में अधिक भीड़ न होने के कारण वे तीसरे दर्जे के डिब्बे में जाकर एक बर्थ पर लेट गए। अगले स्टेशन पर जब रेलगाड़ी रुकी तो एक किसान उस डिब्बे में चढ़ा। उसने बर्थ पर लेटे हुए गांधीजी को अपशब्द बोलते हुए कहा, ‘‘यहां से खड़े हो जाओ। बर्थ पर ऐसे पसरे पड़े हो, जैसे यह रेलगाड़ी तुम्हारे बाप की है।’’ गांधीजी किसान को बिना कुछ कहे चुपचाप उठकर एक ओर बैठ गए। तभी किसान बर्थ पर आराम से बैठते हुए मस्ती में गाने लगा, ‘‘धन-धन गांधीजी महाराज! दुःखियों का दुःख मिटाने वाले गांधीजी।’’ रोचक बात यह थी कि वह किसान कहीं और नहीं बल्कि बेतिया में गांधीजी के दर्शन के लिए ही जा रहा था लेकिन इससे पहले उसने गांधीजी को कभी देखा नहीं था, इसलिए रेलगाड़ी में उन्हें पहचान न सका। बेतिया पहुंचने पर स्टेशन पर जब हजारों लोगों की भीड़ ने गांधीजी का स्वागत किया, तब उस किसान को वास्तविकता का अहसास हुआ और शर्म के मारे उसकी नजरें झुक गई। वह गांधीजी के चरणों में गिरकर उनसे क्षमायाचना करने लगा। गांधीजी ने उसे उठाकर प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया। एक अन्य किस्सा उन दिनों का है, जब गांधीजी सश्रम कारावास की सजा भुगत रहे थे। एकदिन जब उनके हिस्से का सारा काम समाप्त हो गया तो वे खाली समय में एक ओर बैठकर पुस्तक पढ़ने लगे। तभी जेल का संतरी दौड़ा-दौड़ा उनके पास आया और उनसे कहने लगा कि जेलर साहब जेल का मुआयना करने इसी ओर आ रहे हैं, इसलिए उनको दिखाने के लिए कुछ न कुछ काम करते रहें लेकिन गांधीजी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया और कहा, ‘‘इससे तो बेहतर होगा कि मुझे ऐसे स्थान पर काम करने के लिए भेजा जाए, जहां इतना अधिक काम हो कि उसे समय से पहले पूरा किया ही न जा सके।’’ जिस समय द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हुआ, उस समय हमारे देश के अधिकांश नेता इस बात के पक्षधर थे कि अब देश को अंग्रेजों से आजाद कराने का बिल्कुल सही मौका है और इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाते हुए देश में बड़े पैमाने पर आन्दोलन छेड़ देना चाहिए। दरअसल उन सभी का मानना था कि अंग्रेज सरकार द्वितीय विश्वयुद्ध में व्यस्त रहने के कारण भारतवासियों के आन्दोलन का सामना नहीं कर पाएगी और आखिरकार उसे उनके इस राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के समक्ष सिर झुकाना पड़ेगा और इस प्रकार अंग्रेजों को भारत को स्वतंत्र करने पर बड़ी आसानी से विवश किया जा सकेगा। जब यही बात गांधीजी के सामने उठाई गई तो उन्होंने अंग्रेजों की मजबूरी से फायदा उठाने से साफ इनकार कर दिया। हालांकि उस दौरान अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी ने आन्दोलन जरूर चलाया लेकिन उनका वह आन्दोलन सामूहिक न होकर व्यक्तिगत स्तर पर किया गया आन्दोलन ही था। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)-hindusthansamachar.in

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