livestock-development-and-future-prospects
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पशुधन विकास और भविष्य की संभावनाएं

मोहन सिंह भारत में परंपरागत रूप से धन संपदा का मतलब सिर्फ सोना-चांदी, रुपए-पैसे ही नहीं बल्कि गोधन, गजधन और बाजीधन को भी धन के रूप में मान्यता दी गई है। गोधन को वैदिक काल से ही सामाजिक प्रतिष्ठा और आर्थिक समृद्धि का आधार माना गया है। मानवीय सभ्यता के विकास के साथ ही पशुपालन पालन का विकास हुआ। जब मानव आखेटक समाज से खाद्यान्न संग्राहक समाज के रूप में प्रतिष्ठित हुआ और खेती के लिए पशु पालने की जरूरत महसूस की गई। गार्गी संहिता में गाय के सामाजिक आर्थिक महत्त्व को रेखांकित करते हुए गोलोक खंड में बताया गया है कि दस हजार गाय रखने वालों को गोकुल, पचास हजार गाय रखने वाले को उपनंद, नवलाख गाय रखने वाले को नंद और दस लाख गाय रखनेवाले को वृषभान कहा जाता है। स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा है कि गवांमध्ये वसामि अहं अर्थात गायों के बीच मैं निवास करता हूँ। भारतीय शास्त्रों में इस बात का जिक्र मिलता है कि देश में दूध की नदियां बहती है। इससे इतना संकेत तो मिलता ही है कि देश में दूध का पर्याप्त उत्पादन होता था। देश की बढ़ती आबादी की पूर्ति के लिए दूध का व्यवसायिक उत्पादन शुरू हुआ। स्वतंत्रता के पहले देश में दुग्ध उत्पादन असंगठित क्षेत्र में होता रहा है। सन 1913 में सेना में दूध और घी की आपूर्ति करने के लिए पहली बार सैन्य डेयरी इलाहाबाद में शुरू हुआ। इसके बाद करनाल और बैंगलोर में भी सैन्य डेयरी की शुरुआत की गई। सन 1940 में ब्रिटिश हुकूमत के समय गुजरात जिला दुग्ध उत्पादन संघ को गुजरात सहकारी विपणन संघ की स्थापना की अनुमति दी गयी। भारत में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की स्थापना सन 1965 हुई। दुग्ध उत्पादन को गति देने के लिए डॉ.वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में भारतीय डेयरी निगम के अंतर्गत प्रथम दुग्ध क्रांति का श्रीगणेश किया गया। 13 जनवरी 1970 को ऑपरेशन फ्लड की शुरुआत हुई। दस राज्यों में इस योजना की शुरुआत की गयी। यह योजना गयारह साल तक चली। योजना के तहत चार महानगरों दिल्ली, मुंबई, मद्रास और कोलकाता में 117 करोड़ रुपए की लागत से मदर डेयरी की स्थापना की गई। तृतीय दुग्ध विकास परियोजना, ऑपरेशन फ्लड 2 सात साल के लिए सन 1978 से 1985 तक चलायी गई। इस योजना के तहत राष्ट्रीय दुग्ध शालाओं को उपभोक्ता केंद्रों से जुड़ने के लिए राष्ट्रीय ग्रिड की स्थापना की हुई। चतुर्थ दुग्ध विकास परियोजना ऑपरेशन फ्लड 3 के तहत सन 1988 तक 50 लाख 70000 हजार परिवारों को इससे जोड़ा गया। इन तमाम प्रयासों से घरेलू बाजार में दूध के अलावा घी और मक्खन का उत्पादन 10% की दर से बढ़ने लगा। इस वजह से भारत सन 1998 से दूध उत्पादन के मामले में दुनिया में नंबर एक स्थान पर बना है। देश में कुल घरेलू उत्पाद का करीब 48% दूध या तो उपयोग में आता है अथवा स्थानीय स्तर पर खपत हो जाता है। शेष 52% से अधिक दूध शहरों में बिक्री के लिए उपलब्ध होता है। कुल दूध उत्पादन का 40% दूध डेयरी और सहकारी समितियों के द्वारा और बाकी 60% असंगठित क्षेत्र में बिक्री के जरिए खपत होता है। भारतीय दुग्ध उत्पादन से जुड़े एक सांख्यिकी के आंकड़े के अनुसार देश में 70% दूध की आपूर्ति छोटे सीमांत और भूमिहीन किसान करते हैं। ग्रामीण इलाके में लगभग 3 चौथाई आबादी के जीविकोपार्जन का स्रोत पशुपालन और दूध उत्पादन है। यही नहीं हर तीन में से दो परिवारों के बीच एक डेयरी है। दुनिया में सबसे कम लागत से दूध का उत्पादन भारत में होता है। भारत में यह 27 सेंट प्रति लीटर, अमेरिका में 63 सेंट और जापान में 2.8 सेंटप्रति लीटर खर्च आता है।दुनिया में कुल गायों की संख्या का लगभग 15% और भैंसों की संख्या का लगभग 55% अकेले भारत में पाई जाती हैं। किसानों की कुल आमदनी में 30.7% हिस्सा पशुपालन का होता है। कृषि के सकल घरेलू उत्पादन में पशुधन की हिस्सेदारी लगभग 28 से 30% तक है। देश के दुग्ध उत्पादन में कई गुना वृद्धि संकर नस्ल की पशुओं से हुई है। पर संकर नस्ल के पुशुओं में बांझपन की शिकायत आम है। पशु विशेषज्ञ एके श्रीवास्तव बताते हैं कि इस समय सबसे बड़ा संकट यह है कि 50% नर पशु असमय बांझपन के शिकार हो जाते हैं। यही नहीं इनमें 40 से 70% सांड़ो के सीमेंन कम गुणवत्ता वाला होने की वजह से संग्रह के योग्य नहीं हैं। एक रिसर्च में यह बात भी सामने आयी है कि स्थानीय जल और मिट्टी में मिनरल्स की कमी भी संकर नस्ल के पशुओं के बाँझपन की एक बड़ी वजह है। भारत में दूध की औसत उत्पादकता प्रति स्वदेशी पशु प्रतिदिन औसतन 4.85 किलो है। सरकार का लक्ष्य है कि इस स्तर को बढ़ाकर कम से कम 6.77 किलो प्रतिदिन प्रति स्वदेशी पशु किया जाए। दूध की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए अगले 15 वर्षों तक कम से कम 4% वार्षिक दर से दूध उत्पादन को बढ़ाना जरूरी होगा। पर ऐसा देखा गया है कि सरकार की इन योजनाओं के बावजूद दुग्ध उत्पादकों को दूध का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। सन 2017 में महाराष्ट्र के सांगली जिले में पशुपालकों को ऐसी ही मुसीबतों से दो-चार होना पड़ा था।नतीजतन पशुपालक ने विवशतावश अपना दूध सड़कों पर बहा दिये। पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की पहल से दूध का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया गया और पशुपालकों को 10% निर्यात की छूट भी सरकार को देनी पड़ी। तब पशुपालकों को गाय का दूध महज₹23 और कुछ जगह ₹17 में बेचने पर विवश होना पड़ा था। जबकि एक बोतल बंद पानी की कीमत आज के दिन ₹20 से कम नहीं है। यहीं दूध जब शहरों में बिक्री के लिए जाता है तो उसकी कीमत ₹40 प्रति लीटर होती है। हरियाणा के जींद जिले के डेयरी फार्म मालिक सुमेर सिंह मलिक बताते हैं कि दूध का भाव जिंद में ₹55 प्रति लीटर है। मलिक यह भी बताते हैं कि मुर्रा नस्ल की चार भैंसों से वे हर महीने तकरीबन 40 से ₹50000 सारा खर्च काटकर कमा लेते हैं। इसमें बैंकों से लिए गए लोन की किस्त अदायगी भी शामिल है। वे बताते हैं कि कि वह पढ़ाई-लिखाई कर जब अपने गृहस्थी की तरफ लौटे तो उन्होंने देखा कि एक चपरासी का मासिक वेतन ₹30000 से ज्यादा नहीं है। ऐसी स्थिति पूर्वी उत्तर प्रदेश और उसके सटे बिहार के इलाकों में नहीं है। यहां अच्छी नस्ल के पशुओं का अभाव,दुग्ध को-आपरेटिव और निचले स्तर पर सीधे पशुपालकों से खरीदारी का कोई संगठित नेटवर्क नहीं है। इस वजह से पशुपालकों को दूध का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। आलम यह है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले दोकटीगांव के आसपास गाय के दूध की कीमतें ₹23 से ₹24 प्रति लीटर वहीं भैंस के दूध की कीमत ₹33 से ₹35 प्रति लीटर पर ही पशुपालकों को बेचने के लिए विवश होना पड़ता है। इसके बावजूदएक पशुपालक अच्छी नस्ल के पशु से अपने परिवार का पूरा खर्च निकाल कर एक गाय से करीब 6 से ₹7000 महीने की आमदनी कर सकता है। बलिया जिले के दोकटी गांव के पशुपालक शंकर सिंह का अनुभव तो कुछ ऐसा ही है।वे बताते हैं कि पिछले 7 महीने से उनकी गाय से लगभग ₹45000 की आमदनी अबतक हो चुकी है। पशुपालकों को दूध की अच्छी कीमत न मिल पाने की एक बड़ी वजह बाजार में मिलावटी दूध का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना भी बताया जा रहा है। प्रोग्रेसिव डेयरी फार्म के एसोसिएशन के गुरजीत सिंह संधू बताते हैं कि बाजार में उपलब्ध 40% दूध असली और 60% मिलावटी होता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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