Jammu-Kashmir: 370 को निष्प्रभावी करने के बाद शुरु हुआ बदलाव, सरकार के सामने अभी भी है कई चुनौतियां
Jammu-Kashmir: 370 को निष्प्रभावी करने के बाद शुरु हुआ बदलाव, सरकार के सामने अभी भी है कई चुनौतियां

Jammu-Kashmir: 370 को निष्प्रभावी करने के बाद शुरु हुआ बदलाव, सरकार के सामने अभी भी है कई चुनौतियां

आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में पांच अगस्त एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली तिथि बनने जा रही है। जहां इस साल इस दिन अयोध्या में राम जन्मभूमि पर राम मंदिर के निर्माण का भूमि पूजन होने जा रहा है, वहीं पिछले वर्ष इसी तारीख को नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद में वह बिल पेश किया था जिससे भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 और 35ए निष्प्रभावी हो गए थे। इसके साथ जम्मू कश्मीर राज्य का बंटवारा कर उसे जम्मू कश्मीर और लद्दाख नामक दो केंद्र शासित प्रदेशो में परिवíतत कर दिया गया था। अनुच्छेद 370 रूपी यह अस्थायी प्रावधान जम्मू कश्मीर को न सिर्फ विशेष राज्य का दर्जा देता था, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता था कि भारतीयों के कई संवैधानिक प्रावधान और भारतीय संसद द्वारा पारित अनेक कानून जम्मू कश्मीर में उस प्रकार से न लागू हो पाएं जिस तरह से ये देश के अन्य राज्यों में लागू होते हैं। धारा 370 को निष्प्रभावी बनाने का निर्णय जितना ऐतिहासिक और साहसिक था, उतना ही विवादित भी। संविधान निर्माण के समय से ही इसके निर्माताओं के बीच इस बारे में मतभेद था। ऐसा माना जाता है कि भारतीय संविधान के जनक डॉ. आंबेडकर स्वयं इस प्रावधान के खिलाफ थे। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो इसके खिलाफ लड़ते हुए अपनी जान तक दे दी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों तक भाजपा के हर घोषणा पत्र में धारा 370 को खत्म करने का वादा प्रमुखता से रखा जाता था। चूंकि यह काम असंभव माना जाने लगा था, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने इस काम का दारोमदार गृह मंत्री और अपने पुराने साथी अमित शाह को दिया जिन्होंने इस कदम को उठाने से पहले अपना पूरा होमवर्क कर लिया था। इस काम में उनका बखूबी साथ निभाया विदेश मंत्री एस जयशंकर ने, जिन्होंने इस मसले पर दुनिया के सभी बड़े देशों का साथ भारत को दिलवाया जिसमें मुस्लिम और खाड़ी के देश भी शामिल हैं, जो कश्मीर मामले में सामान्यत: पाकिस्तान का पक्ष लेते रहे हैं। कितने बदले हालात : लगभग सात दशक तक कायम रही व्यवस्था के अचानक खत्म किए जाने के नतीजों का एक साल के भीतर आकलन और कोई निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा, लेकिन शुरुआती रुझानों से जो चित्र उभरे हैं, उसने इतना तो साफ कर दिया है कि धारा 370 के खत्म होने के तथाकथित दुष्परिणामों को लेकर मीडिया, एकेडमिक और राजनेताओं के एक धड़े द्वारा जो हाय-तौबा मचाई जा रही थी, वह पूरी तरह से असंगत और किसी विशेष विचारधारा से प्रभावित निकली। जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने उस समय यह बयान दिया था कि यदि 370 को हटाया जाता है तो घाटी में कोई तिरंगा थामने वाला नहीं मिलेगा। लेकिन कुशल तालमेल और व्यापक रणनीति ने इसे गलत साबित किया है। आज कश्मीरी नागरिकों का भारत पर विश्वास बढ़ा है। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने से वहां के प्रभावशाली व्यक्तियों और संगठनों की मठाधीशी भी समाप्त हो गई है जिसके दम पर वो आम जनता का शोषण करते थे। केंद्र शासित प्रशासन की पारदर्शिता और लोक अनुकूलता के कारण हुर्रियत समेत कश्मीर के अन्य अलगाववादी संगठनों में निष्क्रियता और विखंडन देखने को मिल रहा है। यह वही हुर्रियत है जिसके बारे में यह धारणा थी कि कश्मीर को लेकर कोई भी निर्णय बिना हुर्रियत को विश्वास में लिए नहीं लिया जा सकता है। घाटी में, विशेष स्थिति के संदर्भ में अनुच्छेद 370 के साथ लगाव था। पर जम्मू में ऐसा नहीं था। कश्मीर में उन सामान्य नागरिकों की संख्या, जो सात दशकों से अनुच्छेद 370 के तहत रहते थे और उन्हें कुछ भी नहीं मिला, अब शायद अनुच्छेद 370 के बिना जीवन का अनुभव करना चाहते हैं। यही कारण है कि वे हिंसक आंदोलन नहीं कर रहे हैं। धारा 370 को हटाने के पीछे केवल घरेलू राजनीति ही नहीं थी, बल्कि भारत सरकार का सामरिक और कूटनीतिक दृष्टिकोण भी था जिसने इस निर्णय को अपरिहार्य बना दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर ट्रंप जिस तरह से अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से हटा कर उसे तालिबान की गोद में डाल रहे थे, उसका सबसे बड़ा नुकसान भारत को होने की आशंका थी, क्योंकि अनुमान लगाया गया कि यदि तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता में आता है तो वह पाकिस्तान के साथ मिल कर कश्मीर में बड़े स्तर पर आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकता है। ऐसे में दिल्ली को जल्द से जल्द कुछ ऐसा कदम उठाना था जिससे सेना और खुफिया एजेंसियों के हाथ मजबूत करने के साथ खुली छूट दी जा सके। उन हालात को देखते हुए मोदी सरकार का धारा 370 को निष्प्रभावी करने का निर्णय सही साबित होता दिखाई देता है। हालांकि लंबे समय बाद जो सिसायी गतिविधियां वहां शुरू हुई थीं, कोरोना के कारण फिलहाल उसकी गति धीमी है। फिर भी कश्मीर केंद्रित राजनीतिक दलों में यह सहमति बनती जा रही है कि अब वहां की राजनीति कश्मीर की स्वायत्तता और आजादी जैसे मुद्दों से आगे निकल चुकी है। भारत सरकार के लिए घाटी में कश्मीरी पंडितों की सम्मानजनक और सुरक्षित वापसी, आतंकवाद, हिंसा और अलगाववादी घटनाओं को नियंत्रण में रखना आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौतियां होने वाली हैं। [शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]-newsindialive.in

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