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बंगाल में संथाल अपनी जड़ों में कर रहे वापसी, खेती में बटाएंगे हाथ

बोलपुर (पश्चिम बंगाल), 14 जून (आईएएनएस)। रवींद्रनाथ टैगोर ने संथाल जनजाति से ताल्लुक रखने वाले लोगों को जिंदगी को जीने के उनके अनूठे तरीके के लिए सम्मानित किया है। उन्होंने अपनी कविताओं, गीतों और नृत्य में इनका जिक्र किया है। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण हिस्सों में बसने वाले इन संथालियों के पास जमीन की एक छोटी सी टुकड़ी होती है और ये ज्यादातर धान के खेतों में दिहाड़ी मजदूरी के तौर पर काम करते हैं। धान की खेती करने के आधुनिक तौर-तरीकों से भूजल की मात्रा कम हो रही है और समुदाय के लोग बीमार पड़ रहे हैं। ऐसे में पश्चिम बंगाल की जनजाति खेती करने की अपनी पुरानी प्रथाओं का रूख कर रहे हैं ताकि जिंदगी पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। अपने पारंपरिक गीतों में से एक हर हर धरती रीमा बाहा बागान, बाहा बागान रीमा हुनार बाहा के माध्यम से संथाली हरी-भरी धरती का बखान कर रहे हैं, जिसके कई रूप हैं। आधुनिक कृषि पद्धतियों को व्यापक रूप से अपनाए जाने के साथ इस जैव विविधता का अधिकांश भाग नष्ट होने की कगार पर है। पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में अपने खुद के खाने के लिए खेतीबाड़ी करने वाले कई संथालियों ने पाया है कि धान के खेतों के आसपास अपना बिल बनाकर रहने वाले जानवरों और घासफूस व औषधीय जड़ी-बूटियों वाले पौधों की कमी हो रही है। अब ये लोग पुरानी प्रथाओं को अपनाने की कोशिश में लग गए हैं, जिसमें आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का भी जोड़ हो ताकि जो खो रहा है । उसे खोने से रोका जा सके और जो खो गया है उसे फिर से पाया जा सके। हरित क्रांति के आने के साथ इस चुनौती की शुरूआत धान की खेती के साथ हुई है, जिसमें भूजल, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग को बढ़ावा दिया गया है। इसके चलते पिछले कुछ सालों में मिट्टी की जैव विविधता का ह्रास हुआ है। चावल की नई किस्मों का डंठल काफी छोटा और पतला होता है, जिसका इस्तेमाल छप्पर बनाने या मवेशियों के चारे के रूप में नहीं किया जा सकता है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से किसानों के स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ा है। कुछ संथालियों ने दावा किया है कि स्थानीय चावल के खेतों से पुआल खाने या पानी पीने के बाद उनके मवेशी बीमार पड़ रहे हैं, मर रहे हैं। पारंपरिक ढंग से धान की खेती करने के जोखिमों को ध्यान में रखते हुए महिलाओं के नेतृत्व वाले एक समूह ने कृषि और वानिकी का अभ्यास करने के तरीके के एक स्थायी और किफायती विकल्प के रूप में पर्माकल्चर के साथ अपने देशी ज्ञान को एकीकृत किया है। पर्माकल्चर भूमि-प्रबन्धन से सम्बन्धित एक विशेष ²ष्टिकोण व पारिस्थितिकी खेती है, जिसका उद्देश्य टिकाऊ होने के साथ ही आत्मनिर्भर भी होना है। इस तकनीक की मदद से बोलपुर के खंजनपुर गांव के एक समूह ने एक एकड़ से भी कम माप वाले एक भूखंड के स्वरूप को बदल डाला है, जिसकी मिट्टी में दरारें आ गई थीं, यह सूखा पड़ गया था, लेकिन अब यह फिर से हरा-भरा हो गया है। इनकी सफलता ने कई ग्रामीणों को देशी चावल की किस्मों की प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया है, जिससे न केवल भूजल का संरक्षण होता है, बल्कि अधिक पैदावार सुनिश्चित करने के साथ ही साथ यह आने वाली पीढ़ी को रासायन युक्त पानी से बचाती है। भूजल का अत्यधिक दोहन पश्चिम बंगाल में भूजल की स्थिति पर साल 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जिस तरह से कृषि का अभ्यास किया जाता है, वह तेजी से भूजल में हो रही कमी के प्रमुख कारणों में से एक है। पानी की अधिकता वाले बोरो चावल की खेती पर एक अन्य रिपोर्ट भी इस तथ्य की पुष्टि करती है। इस बात को मानते हुए गोटिंगेन विश्वविद्यालय में भू-जीव विज्ञान की एक पूर्व प्रोफेसर शर्मिष्ठा दत्तागुप्ता ने एक इजरायली पर्माकल्चर सलाहकार के समर्थन से संथाली महिलाओं में पर्माकल्चर तकनीक की शुरूआत की। डॉ. शर्मिष्ठा कहती हैं, इस क्षेत्र में पहले मानसून के दौरान बारिश के पानी का उपयोग करके प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर धान की बुवाई की जाती थी। लेकिन अब चावल की संकर किस्मों की खेती से हो रहे भूजल निष्कर्षण की बात को ध्यान में रखते हुए नीति निमार्ताओं के साथ-साथ सरकार भी इस तरीके को बढ़ावा दे रहे हैं। इन किस्मों को शुष्क सर्दियों के मौसम में लगाया जाता है। चूंकि चावल के खेत में पानी का भर जाना जरूरी है, इसलिए ग्रामीण नलकूप बिठा देते हैं, जो 80 मीटर की गहराई से पानी खींचकर उपर तक लाते हैं, जिससे भूजल को भरने में फिर से कई साल लग जाते हैं। वह आगे कहती हैं, जमीन के अंदर गहराई में स्थित पानी लवणों की प्रचुरता होती है। जब चावल की खेती में उपयोग किया जाता है, तो यह जल्दी से वाष्पित हो जाता है और मिट्टी को खारा बना देता है, इसे नुकसान पहुंचाता है। इससे मिट्टी की ऊपरी परत का सूरज के संपर्क में अधिक आना और फिर ट्रैक्टर से जुताई करना और भी हानिकारक हो जाता है। क्योंकि इससे सभी बैक्टीरिया, कवक और केंचुएं मर जाते हैं, जो मिट्टी की पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मूल रूप से, हम मिट्टी के पारिस्थितिकी तंत्र को मार देते हैं और फिर भोजन उगाने के लिए उर्वरकों और कीटनाशकों का सहारा लेते हैं। दुलारिया पहल जीव विज्ञान के एक स्थानीय शिक्षक अभिनंद बैरागी के साथ मिलकर शर्मिष्ठा और इस पहल का नेतृत्व करने वाली संथाली महिला सरस्वती मुर्मू बस्की और शादी के बाद इस समुदाय से अलग हो चुकीं कदम्ब ने पर्माकल्चर के रूप में अपनी शुरू की गई पहल को दुलारिया को करार दिया है। संताली पौराणिक कथाओं में वर्णित इसका अर्थ है प्रेम के माध्यम से निर्मित यानि कि वह मूल प्रेम जिसने संसार में सभी जीवित प्राणियों की रचना की है। 2017 में शुरू की गई इस पहल में समुदाय के सदस्यों के साथ-साथ आसपास के गांवों में रहने वाले सभी धर्म-संप्रदाय के लोग जुड़े हुए हैं। इसमें दुनिया के विभिन्न हिस्सों के विशेषज्ञ सलाहकार और स्वयंसेवक पारंपरिक कृषि के साथ पर्माकल्चर के तरीकों को एकीकृत करने में उनका समर्थन करते हैं। --आईएएनएस एएसएन/आरजेएस

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