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ज्ञानवापी मस्जिद विवाद: तीन दशक बाद फिर सुर्खियों में आया

वाराणसी, 21 मई (आईएएनएस)। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर हिंदू और मुस्लिम पक्षों में विवाद की सुगबुगाहट 1991 से ही सुनाई देने लगी थी, जब वाराणसी के कुछ पुजारियों ने मस्जिद परिसर में पूजा करने की इजाजत पाने के लिए अदालत में याचिका दायर की थी। इस घटना को 30 साल से अधिक हो गये हैं और एक बार फिर यह विवाद सुर्खियां बटोरने लगा है। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर निचली अदालत, इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सबमें सुनवाई की गई। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को इस मामले की सुनवाई निचली अदालत से जिला अदालत को स्थानान्तरित किये जाने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि इस तरह के संवेदनशील मामले की सुनवाई के लिए अधिक अनुभवी जज का होना जरूरी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई शुक्रवार को छह जुलाई तक के लिए टाल दी। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर दशकों पुराना यह विवाद दोबारा चर्चा में तब आया, जब पांच हिंदू महिलाओं ने गत साल अदालत में कहा कि उन्हें मस्जिद परिसर में मौजूद श्रृंगार गौरी और अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं की पूजा करने की अनुमति दी जाये। निचली अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए मस्जिद परिसर का वीडियो सर्वेक्षण करने का आदेश दिया। अदालत ने सर्वेक्षण के लिए कोर्ट कमिश्नर की भी नियुक्ति की। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट पहले 10 मई को अदालत में पेश की जानी थी लेकिन इसी बीच मस्जिद का संचालन करने वाली समिति और उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सर्वे के आदेश को चुनौती दे दी। सर्वेक्षण और मस्जिद के दो तहखाने की वीडियोग्राफी 16 मई को पूरी हुई और इसे अदालत में पेश किया गया। हिंदू पक्ष ने दावा किया कि मस्जिद परिसर में वुजू करने वाले वाली जगह पर शिवलिंग मिला है जबकि मुस्लिम पक्ष का कहना था कि वह शिवलिंग नहीं बल्कि एक फव्वारा है। भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अयोध्या में राममंदिर के निर्माण के दौरान ही वाराणसी में काशी विश्वनाथ से सटे ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्रीकृष्णजन्म भूमि से सटे शाही ईदगाह मस्जिद का मामला उठाया था। उन का कहना है कि ये मस्जिद हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने के बाद बनाये गये हैं। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि सर्वेक्षण ने सच्चाई पर से परदा उठा दिया है। दूसरी तरफ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अदालत के आदेश पर मस्जिद परिसर में कराई गई वीडियोग्राफी को प्रार्थनास्थल अधिनियम 1991 का स्पष्ट उल्लंघन बताया है। इस अधिनियम के तहत 15 अगस्त 1991 को जिस भी प्रार्थना स्थल का जो भी धार्मिक गुण था, उसे आगे वैसे ही जारी रखा जायेगा। यह अधिनियम 11 जुलाई 1991 से लागू है। इस अधिनियम की धारा 4(2) के तहत यह भी कहा गया है कि यदि 15 अगस्त 1947 को विद्यमान किसी भी पूजास्थल के धार्मिक लक्षणों के रूपांतरण से संबंधित कोई मुकदमा, अपील या अन्य कार्यवाही किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य के समक्ष लंबित है, तो वह समाप्त हो जाएगा। यह आगे यह भी सुनिश्चित करता है कि ऐसे मामलों पर कोई नई कार्यवाही शुरू नहीं की जाएगी। इसी अधिनियम की धारा 3 के तहत किसी भी तरह से धार्मिक स्थान के रूपांतरण को प्रतिबंधित किया गया है। मस्जिद की संचालन समिति ने इसी अधिनियम का हवाला देते हुए कहा कि इस अधिनियम के तहत पूजा के अधिकार को प्रतिबंधित किया गया है। समिति ने दलील दी कि हिंदू पक्ष के द्वारा दायर की गई याचिका पुराने विवाद को शुरू करने की कोशिश है जबकि उसे कानूनी रूप से शांत कर दिया गया था। हालांकि, इस अधिनियम के दायरे में अयोध्या के मामले को नहीं लाया गया है। अधिनियम की धारा पांच में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि यह अधिनियम राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद मामले पर लागू नहीं है। गत साल भाजपा नेता एवं वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इस अधिनियम को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उपाध्याय का कहना है कि यह अधिनियम धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। उपाध्याय की याचिका में कहा गया है कि केंद्र ने धार्मिक स्थलों और पूजा स्थलों पर अतिक्रमण के खिलाफ उपाय पर रोक लगाई हुई है और अनुच्छेद 226 के तहत हिंदू , सिख, जैन और बौद्ध इस मामले में अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकते हैं। यह याचिका मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि से संबंधित है। अधिनियम का विरोध करती इसी तरह की एक अन्य याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसे विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने दायर किया है। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर कई याचिकायें सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाई कोर्ट और वाराणसी कोर्ट में लंबित हैं , जिनमें यह दावा किया गया है कि इस मस्जिद को मुगल बादशाह औरंगजेब ने 16वीं सदी में काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बनवाया था। वाराणसी के एक वकील विजय शंकर रस्तोगी ने निचली अदालत में याचिका दायर करके ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण को अवैध ठहराते हुए मस्जिद का पुरातात्विक सर्वेक्षण कराने की गुहार की थी। वाराणसी कोर्ट ने अप्रैल 2021 में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग को सर्वेक्षण करके रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया। मस्जिद का संचालन करने वाली अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद समिति और उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने रस्तोगी की याचिका और वाराणसी की निचली अदालत के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पूजास्थल अधिनियम का हवाला देते हुये एएसआई के सर्वेक्षण पर अंतरिम रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की अगुवाई वाली पीठ पूजास्थल अधिनियम की वैधता की जांच करने पर मार्च 2021 में सहमत हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने गत शुक्रवार को कहा कि मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण अगर किसी ढांचे के धार्मिक लक्षण को सुनिश्चित करने के लिए किया गया है, तो यह पूजास्थल अधिनियम के तहत प्रतिबंधित नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के नेपथ्य में चल रहे राजनीतिक खेल को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उनका कहना है कि राम जन्मभूमि के बाद हिंदू संगठन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इन मुद्दों को हवा देकर धार्मिक भावना को भड़का रहे हैं। भाजपा के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि राम मंदिर के बाद हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम काशी विश्वनाथ धाम में ज्ञानवापी मस्जिद से भगवान शिव को मुक्त करायें और उसके बाद मथुरा में ईदगाह से कृष्ण जन्मभूमि को मुक्त करायें। --आईएएनएस एकेएस/एमएसए

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