लुप्त हो चुकी है दास्तानगोई और किस्सागोई जैसी प्राचीन कला
- दरगाह की महफिलों और जलसे-जुलूसों में आज भी जीवित है सत्संग, भागवत कथा, राम चरित्र मानस के पाठ नई दिल्ली, 15 मार्च (हि.स.)। दास्तानगोई और किस्सागोई की परंपरा आज हमारे बीच से लगभग लुप्त हो चुकी है। मशहूर दास्तानगो मीर बाकिर अली को इस हुनर का आखिरी माहिर माना जाता है जिनकी याद में पुरानी दिल्ली के पहाड़ी इमली स्थित शाह वालीउल्लाह लाइब्रेरी में एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें मीर बाकिर अली की जिन्दगी के विभिन्न पहलुओं और उनकी उपलब्धियों का बखान किया गया। साथ ही हमारे देश में अपनी जड़ें जमा चुकी अंग्रेजी हुकूमत और साथ-साथ चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन, गांधीजी के असहयोग आंदोलन में खादी अपनाने और मलमल छोड़ने के बीच की कशमकश की पूरी कहानी को बयान किया गया। दरअसल दास्तानगोई की कला भारत में अंग्रेजी सरकार के आगमन और शाही दौर के पतन के साथ ही अपना वजूद खोने लगी थी। उस समय के मशहूर दास्तानगो मीर बाकिर अली का पूरा जीवनकाल अंग्रेजी हुकूमत के आगमन, शाही हुकूमत और राजे-रजवाड़ों के पतन के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है। प्रोफेसर डॉक्टर मोहम्मद फिरोज देहलवी के जरिए प्रस्तुत किए गए अपने शोधपत्र में बताया गया कि मीर बाकिर अली का परिवार ईरान से भारत आया था लेकिन 1857 के पहले स्वतंत्रा संग्राम में उनके पिता सहित परिवार के अधिकांश सदस्य मारे गए और वह अपने चाचा के साथ दरगाह शाह-ए-मर्दा जोर बाग में जाकर छुप गए। बाद में शांति स्थापित होने के बाद फाटक तेलियान और उसके बाद फराशखाना में रहने लगे। शाही और राजे-रजवाड़ों की हुकूमतों ने उन्हें बहुत मान सम्मान दिया। अपने हुनर के एवज में उन्हें सोने-चांदी की अशरफियां मिलती थीं लेकिन बाद में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान उन्हें अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए पान की छलियां और अपनी लिखित पुस्तकों को पुरानी दिल्ली की गलियों में घूम-घूम कर बेचते हुए देखा गया। यहां तक कि अपने घर में दास्तानगोई के लिए पहले 1 घंटे के लिए एक आना और बाद में अपनी बढ़ती जरूरत को देखते हुए 2 घंटे के के लिए दो आना लेना शुरू कर दिया और यह सिलसिला उनके अंतिम सांस लेने तक जारी रहा। फिरोज देहलवी का कहना है कि फरवरी 1938 को उनका निधन हुआ। उस समय दिल्ली में थिएटर और रंगमंच का दौर शुरू हो गया था जिसकी वजह से दास्तानगोई के कद्रदान कम हो गए। उनके अनुसार मीर बाकिर अली ने कई पुस्तकें लिखीं उनमें से उनकी दो पुस्तक जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित करने वाली कहानियां और गांधी जी के आंदोलन से सम्बंधित किससे थे, अंग्रेजों सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया और मीर बाकी को कड़ी चेतावनी देकर छोड़ दिया। हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन और गांधी जी के आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया लेकिन अपने किस्से-कहानियों और दास्तानों से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आम जनता को जागरूक करने में जुटे रहे। इस समारोह की अध्यक्षता प्रोफ़ेसर रियाज उमर ने की एवं मोहम्मद तकी ने संचालन की जिम्मेदारी निभाई जबकि धन्यवाद ज्ञापन मिर्जा रेहान बेग ने प्रस्तुत किया। संगोष्ठी के दौरान यह बात उभर कर सामने आई कि दास्तानगोई और किस्सागोई जैसी प्राचीन कला भले ही हमारे देश में लुप्त हो चुकी है लेकिन किसी न किसी रूप में सत्संग, भागवत कथा और राम चरित्र मानस के पाठ, दरगाह पर आयोजित होने वाली महफिलों, ईद मिलादुन्नबी के जलसों में यह परंपरा आज भी जीवित है। हमारे देश में आज भी जगह-जगह मंदिरों, गुरुद्वारों और दरगाहों आदि पर कार्यक्रमों का आयोजन करके भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और यहां पैदा होने वाले राजाओं, योद्धाओं और साधु-संतों की जीवन गाथाओं का वर्णन करके लोगों को मंत्रमुग्ध किया जाता है। हिन्दुस्थान समाचार/एम ओवैस