मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन : एक किसान पुत्र से जननायक धरती पुत्र तक का सफर
मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन : एक किसान पुत्र से जननायक धरती पुत्र तक का सफर

मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन : एक किसान पुत्र से जननायक धरती पुत्र तक का सफर

- मुलायम सिंह यादव का जन्म 22 नवम्बर 1939 सैफई गांव औरैया, 22 नवबंर (हि. स.)। 1960 का दशक देश में समाजवाद की लहर फैली थी। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया समाजवाद के सबसे बड़े पैरोकार थे। इसी वक्त यूपी के एक छोटे से गांव सैफई के आसपास समाजवादियों की कई रैलियां होती थी। पंद्रह साल के मुलायम सिंह यादव ऐसी रैलियों में अक्सर हिस्सा लेते थे। समाजवादी सिद्धांतों को सुनते, वहां अमीरों और गरीबों में समानता की बात होती। ऐसे मुलायम के दिल में समाजवाद ने जगह बना ली। उस समय उत्तर प्रदेश के इटावा जिले का एक पिछड़ा गांव था सैफई , इसी गांव का एक लड़का अखाड़े में तेजी से पहलवानी के दांव पेच सीख रहा था। बेहद साधारण परिवार का बेटा मुलायम सिंह कुश्ती को अपना भविष्य मानता था। पिता सुघर सिंह यादव किसान थे। पांच बेटों में मुलायम को खुद ही अपनी देख-रेख में कसरत करवाते, अखाड़े में जब मुलायम अपने से बड़े कद-काठी के पहलवानों को चरखा दाव लगा मिनटों में चित्त कर देते तो, पिता का सीना और चौड़ा हो जाता। राज्य में उस वक्त सिंचाई के बढ़े हुए दामों को लेकर किसानों में गुस्सा था। डॉक्टर लोहिया ने यूपी में कांग्रेस सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी थी। लोहिया के भाषणों से प्रभावित मुलायम नहर रेट आंदोलन की रैलियों में सबसे आगे दिखते। कांग्रेस सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिए राम मनोहर लोहिया और कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 15 साल के मुलायम भी गिरफ्तार हुए। जेल से जब वापस लौटे तो समूचे गांव ने उनको अपने सर आंखों पर बैठा लिया। अब कुश्ती के साथ-साथ समाजवादी आंदोलन में मुलायम की दिलचस्पी बढ़ने लगी। बीए के बाद मुलायम बैचलर ऑफ टीचिंग का कोर्स करने के लिए शिकोहाबाद कॉलेज आ गए। ऐसे शुरू हुआ मुलायम का सफर शादी बचपन में ही हो गई थी। इसलिए घर चलाने के लिए 1965 में मुलायम करहल के जैन इंटर कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाने लगे। वह मास्टरी के साथ-साथ दंगल में लड़ते और समाजवादियों की रैलियों में जाते। कोई उन्हें मास्टरजी कह कर बुलाता तो कोई नेता जी। मैनपुरी के एक ऐसे ही दंगल में जसवंत नगर के विधायक नत्थू सिंह की नजर मुलायम पर पड़ी। अखाड़े में आते ही मुलायम ने अपने से ताकतवर पहलवान को मिनटों में पस्त कर दिया। नत्थू सिंह मुलायम के मुरीद हो गये। राजनीति में उन्हें अपना शागिर्द बना लिया। 1967 में जब विधानसभा के चुनाव आए तो मुलायम सिंह को नत्थू सिंह ने अपनी जगह पर टिकट दे दिया। अपने भाइयों के साथ मिलकर मुलायम गांवों और कस्बों में साइकिल से प्रचार करने के लिए निकल पड़े। मुकाबला कांग्रेस के बड़े दिग्गज नेता एडवोकेट लाखन सिंह से था। विरोधी इसे हाथी और चूहे की लड़ाई बता रहे थे। लेकिन जब नतीजे सामने आए तो राजनीति के अखाड़े की पहली ही लड़ाई में मुलायम ने लाखन को धूल चटा दी, और 28 साल की उम्र में राज्य के सबसे कम उम्र के विधायक बने। सियासत की पहली सीढ़ी पार करने के बाद मुलायम सिंह किसानों और पिछड़ों के ताकतवर नेता चरण सिंह से जुड़ गयें। उस वक्त समाजवादी विचारधारा वाली पार्टियां, गैर कांग्रेसवाद की जमीन तैयार कर रही थी और कई दलों से मिलकर के बना- भारतीय लोकदल। अब मुलायम सिंह यादव राज नारायण, देवीलाल और कर्पूरी ठाकुर जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के कतार में आ गये। घर में भी शादी के 16 साल बाद खुशियां लौटी 1 जुलाई 1973 को मुलायम के घर में बेटे अखिलेश ने जन्म लिया।अगले साल मुलायम फिर से चुनकर विधानसभा पहुंचे। जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की सरकार को हटाने के लिए संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। मुलायम सिंह शहर-शहर, गांव - गांव कांग्रेस सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट करते। 26 जून 1975 को जब देश में आपातकाल लगा तो अगले ही दिन मुलायम भी गिरफ्तार हो गये। मुलायम ने पूरे 19 महीने इटावा की जेल में काटे।आपातकाल के हटते ही देश में चुनाव हुए विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई। मुलायम चुनाव लड़े और जीत गये। देश और उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी। मुलायम को सहकारिता पशु पालन और ग्राम उद्योग मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई। 10 साल की राजनीति के बाद जनता पार्टी की सरकार में मंत्री बने मुलायम चाहते थे कि सहकारिता नौकरशाहों की लाल फीताशाही से निकलकर आम जनता के हाथ में चली जाए। इसी सहकारी आंदोलन के जरिए मुलायम सिंह ने अपने परिवार को राजनीति में उतारा। पहले मुलायम इटावा के सहकारी बैंकों से जुड़े थे। जब सहकारिता मंत्री बने तो भाई शिवपाल यादव को सहकारिता आंदोलन में शामिल करवाया। बाद में शिवपाल इटावा से सहकारी बैंक के अध्यक्ष चुने गये। मुलायम ने चचेरे भाई राम गोपाल यादव को इटावा के शहर ब्लॉक का अध्यक्ष चुनवा दिया। राम गोपाल यादव इटावा के डिग्री कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाते थे। परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे। इसलिए वह रणनीति बनाने और कागजी लिखा-पढ़ी में मुलायम की मदद करते। शिवपाल विरोधियों के जानलेवा हमलों से मुलायम को बचाते। रैलियों में मुलायम की सुरक्षा की जिम्मेदारी शिवपाल की होती। मुलायम पर एक हमला 1982 के वक्त राज्य में वीपी सिंह सरकार के समय हुआ था। इटावा में उस दौरान चंबल के डाकुओं का आतंक था। डाकुओं के आतंक को काबू में करने के लिए विपक्ष ने वीपी सिंह सरकार पर कई बार पिछड़ों के साथ ज्यादती के आरोप लगाए और कई फर्जी एनकाउंटर हुए। मुलायम विधानसभा और उसके बाहर खुलकर वीपी सिंह का विरोध कर रहे थे। मुलायम पर हमले के लिए उनके कट्टर विरोधी बलराम सिंह यादव को जिम्मेदार बताया गया। मुलायम के सियासी गुरु चरण सिंह ने उनकी सुरक्षा के लिए यूपी विधान परिषद में उन्हें विपक्ष का नेता बना दिया। मुलायम को सरकारी सुरक्षा मिल गई। सियासी खतरे का खामियाजा परिवार को भुगतना पड़ता। इटावा के सेंट मैरी स्कूल के तीसरी क्लास में पढ़ रहे बेटे अखिलेश को स्कूल छोड़ना पड़ा। इटावा में विरोधियों की नज़रों से बचाने के लिए अखिलेश को राजस्थान के धौलपुर स्थित मिलिट्री स्कूल में भेज दिया गया। मुलायम को अपनी हिफाजत में रखने वाले चरण सिंह बढ़ती उम्र के साथ राजनीति की सरगर्मी से दूर होने लगे। इसके बाद मुलायम को दो-दो मोर्चों पर एक साथ लड़ना पड़ा। पहला विधानसभा के अंदर और बाहर विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी, दूसरा चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को लेकर जंग। विदेश से पढ़ाई करके लौटे अजीत सिंह, पिता चौधरी चरण सिंह की राजनीति विरासत को संभालने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन मुलायम का दावा ज्यादा मजबूत था। अजीत भले ही चरण सिंह की राजनीति के वारिस थे, पर जनाधार के वारिस मुलायम ही बने। चरण सिंह की मौत के साथ ही लोकदल पार्टी टूट गई। अजीत सिंह लोकदल की कमान अपने हाथ में रखना चाहते थे। उनका आरोप था कि मुलायम पार्टी में मनमाने फैसले लेते हैं। आखिरकार अजीत सिंह और कांग्रेस के नेताओं के बीच में मुलायम के हाथ से विपक्ष के नेता की कुर्सी निकल गई। मुलायम ने मौका गवाया नहीं, लेफ्ट और चंद्रशेखर की जनता पार्टी सहित सात दलों को मिलाकर क्रांति मोर्चा बनाया। एक मिनी वैन को क्रांति रथ का रूप दिया और यूपी के दौरे पर निकल गये। यात्रा के आखिरी दिन लखनऊ में बड़ी रैली की। चंद्रशेखर, हेमवती नंदन बहुगुणा, हरकिशन सिंह सुरजीत, रामकृष्ण हेगड़े जैसे बड़े-बड़े विपक्षी नेता इस रैली में आए और यहीं से पहली बार मुलायम के मुख्यमंत्री बनने की नीव पड़ी। सियासत में रमे मुलायम ज्यादातर वक्त लखनऊ में बिताते। परिवार के लिए वक्त कम रहता, मुलायम के विधानसभा इलाकों की जिम्मेदारी भाई शिवपाल यादव पर रहती। लखनऊ से सैफई तक समाजवादियों का एक नारा अक्सर सुनाई देने लगा था कि जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है, इसके पीछे राजनीति की वह माहिर चाल है जिसे चलने में मुलायम सिंह खूब माहिर हैं। केंद्र में कांग्रेस सरकार बोफोर्स के दलाली के आरोपों से घिरी हुई थी। चुनाव सिर पर थे, जनता पार्टी के लिए सरकार को घेरने का इससे अच्छा मौका नहीं था। मुलायम जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश में अध्यक्ष थे। वह पूरे राज्य में रैलियों और प्रदर्शन से राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ जन आंदोलन चला रहे थे। आखिरकार मुलायम अग्नि परीक्षा में पास हो गये। उत्तर प्रदेश में 1989 का विधानसभा चुनाव मुलायम के नेतृत्व में लड़ा गया था। इस वजह से उनका मुख्यमंत्री बनना तय था लेकिन सीएम की कुर्सी और उनके बीच आ गये धुर विरोधी अजीत सिंह। फिर तय किया गया कि अजीत सिंह और मुलायम सिंह के बीच में एक सीधा मुकाबला होगया सभी विधायक उसमें वोट करेंगे। तीन सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई और बहुत ही तनावपूर्ण माहौल में दोनों का सिलेक्शन हुआ था। तिलक हॉल में सभी विधायक गये थे और अपने वोट डाले थे। जिसमें मुलायम सिंह जीत गये और 5 दिसंबर 1989 को पहली बार मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। बीजेपी ने विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के साथ मिलकर अयोध्या में राम मंदिर शिला यात्रा शुरू कर दी। चार महीने बाद कारसेवक अयोध्या में जमा होने लगे। आखिरकार कार सेवकों को विवादित बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ने से रोक दिया गया। पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी। दर्जनों कारसेवकों की मौत हो गई, और मुलायम रातोरात विलेन बन गये। अप्रैल 1991 में मुलायम की सरकार गिर गई अब तक दूसरी पार्टियों के सहारे राजनीति कर रहे मुलायम को अपनी एक पार्टी की जरूरत महसूस हुई। 4 अक्टूबर 1992 को उन्होंने लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में समाजवादी पार्टी के नाम से एक नई पार्टी की स्थापना की। जब पिता ने समाजवादी पार्टी बनाई तो अखिलेश यादव मैसूर में इंजीनियरिंग कर रहे थे। उन्हें अखबारों से इस खबर का पता चला। समाजवादी पार्टी बनने के 2 महीने बाद मुलायम को एक और मौका मिला। बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराये जाने के दिन 6 दिसंबर 1992 को कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। इसी साल मुलायम सिंह के भाई राम गोपाल राज्यसभा के लिए निर्वाचित हो गये। यूपी की सत्ता में वापसी के लिए मुलायम सिंह ने कांशीराम की बहुजन समाजवादी पार्टी को अपने साथ ले लिया। 4 दिसंबर 1993 को मुलायम दूसरी बार यूपी के सीएम बने। लेकिन 6 महीने के बाद बहुजन समाजवादी पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया। इस बीच मुलायम के यदुवंश से दूसरी पीढ़ी राजनीति में उतरी। मुलायम के सबसे बड़े भाई रतन सिंह यादव के बेटे रणवीर सिंह यादव को सैफई ब्लॉक के अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाया गया। मुलायम ने राज्य की सियासत छोड़कर देश की राजनीति की राह पकड़ ली। जसवंत नगर की सीट अपने भाई शिवपाल के लिए छोड़ दी जो उस सीट से पहली बार चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। मुलायम मैनपुरी से लोकसभा का चुनाव लड़ कर पहली बार संसद पहुंचे और देवगौड़ा की यूनाइटेड फ्रंट सरकार में रक्षा मंत्री बने। देवेगौड़ा को कांग्रेस का समर्थन न मिलने से उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा। यूनाइटेड फ्रंट के केंद्रीय नेताओं में मुलायम सिंह की साख सबसे मजबूत थी। हरकिशन सिंह सुरजीत के मुलायम सिंह से बहुत अच्छे संबंध थे। वह उनके नाम को आगे बढ़ा रहे थे प्रधानमंत्री के लिए। वह करीब- करीब हो गया था लेकिन अंतिम समय पर दो यादव लालू यादव और शरद यादव ने उनके नाम पर सहमति जताई आखिरकार इंद्रकुमार गुजराल के नाम पर सहमति बनी और मुलायम रक्षा मंत्री ही रह गये। मुलायम फिर से यूपी लौटे और अब मुलायम ने अखिलेश के लिए राजनीति का रास्ता खोला। अखिलेश सिडनी से पढ़ाई खत्म कर देश लौटे थे। मुलायम को राजनीतिक भविष्य चिंता सताने लगी। 1999 लोकसभा उपचुनाव में मुलायम कन्नौज और संभल से लड़े। अखिलेश ने पिता के लिए चुनाव प्रचार में भाग लिया। इसी दौरान मुलायम के साथी जनेश्वर मिश्र ने कहा कि यह सही वक्त है की अखिलेश को राजनीति में ले आओ।मुलायम दोनों जगह से चुनाव जीत गये और कन्नौज की सीट खाली कर दी, तो अखिलेश को चुनाव लड़ाने की बातें उठी। मुलायम के बेटे को समाजवादी पार्टी में लांच करने का इससे अच्छा मौका और कोई नहीं था। जिस वक्त मुलायम अखिलेश की सियासत की ओपनिंग के बारे में सोच रहे थे, उसी वक्त अखिलेश अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ देहरादून में थे। 24 नवंबर 1999 को डिंपल से अखिलेश की शादी हुई। दोनों शॉपिंग मॉल में घूम रहे थे कि अचानक मुलायम का अखिलेश के पास फोन पहुंचा की आओ कि तुम्हें चुनाव लड़ना है। अखिलेश ने पहली बार कन्नौज से नामांकन भरा बहुजन समाजवादी पार्टी ने अखिलेश की हार सुनिश्चित करने के लिए अकबर अहमद डंपी को मैदान में उतार दिया। बेटे को पहली बार जिताने के लिए मुलायम ने दिन- रात एक कर दिया। अखिलेश भी वोट मांगने घर-घर पहुंचे। नतीजे सामने आये तो अखिलेश ने बीएसपी के अकबर अहमद डंपी को 58725 वोट से हरा दिया और इसके साथ ही समाजवादी पार्टी में अखिलेश की बड़ी राजनीतिक पारी की यहीं से शुरुआत हुई। अखिलेश को एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्हें समाजवादी पार्टी के कई मुख्य संगठनों का अध्यक्ष बनाया गया। पार्टी की यूथ ब्रिगेड को खड़ा करने और पूरे राज्य में प्रदर्शन का जिम्मा मिला अखिलेश को पार्टी में बड़े रोल के लिए तैयार किया जा रहा था। 2003 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हुए तो 183 सीटों के साथ समाजवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बन गई। 29 अगस्त 2003 को मुलायम तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। सरकार बनाने की सियासी चालों के बीच अखिलेश बैक सीट पर ही बने रहे। मई 2007 में मायावती ने फिर सत्ता में वापसी की मुलायम को लगा कि पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए नया जोश नई उम्मीद और एक नई छवि की जरूरत है। अखिलेश को भी इस बात का पूरा अनुमान था। अखिलेश को कन्नौज और फिरोजाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ाया गया। वह दोनों जगहों से जीत गये। अखिलेश ने फिरोजाबाद सीट छोड़ी तो मुलायम ने बहू डिंपल के सामने चुनाव लड़ने का ऑफर रख दिया, लेकिन यहां मुलायम की रणनीति काम नहीं आई। कांग्रेस के उम्मीदवार राज बब्बर ने डिंपल यादव को हरा दिया। इस दौरान अखिलेश ने महसूस किया कि जनता समाजवादी पार्टी से दूर होती जा रही है। नौजवान खास तौर से समाजवादी पार्टी को पुराने जमाने की पार्टी के रूप में देख रहे हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी की इस छवि को बदलना अखिलेश के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। अखिलेश ने डीपी यादव जैसे बाहुबलियों को टिकट देने का विरोध किया। जनता में संदेश गया कि समाजवादी पार्टी का ये युवा चेहरा दागियों को राजनीति से दूर ही रखेगा। 35 से 40 टिकट महिलाओं और युवाओं को दिए गये। टिकट बटवारे के ज्यादातर फैसले अखिलेश ने ही लिए। इसी बहाने मुलायम बड़े फैसलों के लिए अखिलेश को तैयार कर रहे थे। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के ऐलान के बाद अखिलेश पूरे राज्य के दौरे पर निकल पड़े। समाजवादी पार्टी के क्रांति रथ पर गांव - गांव घूम कर उन्होंने पार्टी के लिए वोट मांगा। अखिलेश यादव का सीधा मुकाबला मायावती और कांग्रेस से था। कांग्रेस भी अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने के लिए जोर लगा रही थी और जब नतीजे सामने आए तो मायावती के साथ- साथ कांग्रेस के भी होश उड़ गये। 403 सदस्यों की विधानसभा में पार्टी को 224 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। मायावती की कुर्सी भी छिन चुकी थी। कांग्रेस बुरी तरह से हार चुकी थी। पूरे उत्तर प्रदेश में उसे केवल 28 सीटें ही मिली थी। मुलायम सिंह को अब मुख्यमंत्री का नाम तय करना था, राम गोपाल यादव ने खुलेआम अखिलेश का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए ले लिया। इस बात से शिवपाल सिंह यादव नाराज हो गये। शिवपाल चाहते थे की मुलायम सिंह कम से कम 2 साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उन्हें बिठाएं या वह स्वयं बने लेकिन शिवपाल सिंह की इच्छा नहीं।अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। मुलायम ने फिर अपनी बहू डिंपल को भी कन्नौज के रास्ते संसद तक पहुंचाया। डिंपल यादव निर्विरोध चुनकर के संसद पहुंची। डिंपल मुलायम के परिवार की पहली महिला सदस्य नहीं है। जिन्होंने राजनीति में कदम रखा है। डिंपल से पहले मुलायम के सगे भाई राजपाल यादव की पत्नी प्रेमलता यादव राजनीति में लाई जा चुकी हैं। मुख्यमंत्री बनने के तीन चार महीने बाद ही अखिलेश के बारे में कानाफूसी होने लगी की मुख्यमंत्री तो अखिलेश है लेकिन यूपी सरकार मुलायम सिंह ही चला रहे हैं। फिलहाल वर्तमान में बुजुर्ग है और पार्टी की बागडोर अखिलेश संभाल रहे हैं और आज नेता जी का 82वां जन्मदिन मनाया बड़ी धूमधाम से मनाते हुए उनकी लम्बी उम्र व बेहतर स्वास्थ्य की कामना की गई। हिन्दुस्थान समाचार/ सुनील-hindusthansamachar.in

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