प्रयागराज, 11 फरवरी (हि.स.)। आज ऐसे लोग हैं जिन्हें अपने गुरु और परम्परा का ही ज्ञान नहीं है और इसका खण्डन भी करते हैं। सन्यासी व धर्माचार्य बने बैठे हैं। इससे अधिक धर्म और गुरु का क्या अनादर हो सकता है? इन लोगों को पता ही नहीं है कि इनका गुरु कौन है और इनकी परम्परा क्या है? ऐसे में वे अपने को सन्यासी कैसे कह सकते हैं। यह बातें श्रीमद्ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गगुरु शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती ने अपने माघ मेला शिविर प्रयागराज में गुरुवार को गुरु और शिष्य के प्रति सम्मान की भावना पर सम्बोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा कि भगवान आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्मावलम्बी प्रकाण्ड विद्वान कुमारिल भट्ट से शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट की। लेकिन, कुमारिल भट्ट ने कहा कि मुझसे अपने गुरु के प्रति अपमान हो गया है। इसके प्रायश्चित के लिए मैं तुषानल में जलकर भस्म हो रहा हूँ। उन्होंने बताया कि कुमारिल भट्ट ने आदि शंकराचार्य से कहा कि शास्त्रार्थ के लिए मेरे शिष्य मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित करे और अपने साथ लीजिए व सनातन धर्म का प्रचार करिये। इसके बाद भगवान आदि शंकराचार्य ने राजा सुधन्वा के साथ सनातन विरोधियों का संयमन किया। जगद्गुरू शंकराचार्य ने प्रयाग में माघ-मेला का संदर्भ देते हुए बताया कि ऐसे ही अवसर पर महर्षि याज्ञवलक्य प्रतिवर्ष प्रयाग आते थे और भरद्वाज ऋषि के आग्रह पर व्याख्यान भी देते थे। इसी संदर्भ में गोस्वामी ने लिखा है “प्रतिसम्वत् अस होइ अनन्दा।” ब्रह्माजी ने भी प्रयाग में ही गंगा के किनारे दस अश्वमेघ यज्ञ किया था, उसी स्थल को आज भी दशाश्वमेघ घाट कहते हैं। शिविर में प्रमुख रूप से दण्डी स्वामी विनोदानंद सरस्वती, पूर्व प्रधानाचार्य ज्योतिष्ठपीठ संस्कृत महाविद्यालय पं. शिवार्चन उपाध्याय, आचार्य विपिन मिश्र, प्रधानाचार्य सन्तोष, पं. मनीष आदि बड़ी संख्या में भक्त एवं दर्शनार्थी उपस्थित रहे। हिन्दुस्थान समाचार/विद्या कान्त/संजय-hindusthansamachar.in