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अबकी बार पंचायत चुनाव पर महंगाई की मार!

- मंदी की दौर में गांव में परवान नहीं चढ़ पा रहा है प्रचार बलिया, 25 मार्च (हि. स.)। महंगाई की मार आज हर कोई झेल रहा है। इसका असर इस बार के पंचायत चुनावों में भी देखने को मिल रहा है। वे उम्मीदवार जो चुनाव लड़ना चाहते हैं, आमदनी घटने के कारण खर्च नहीं कर पा रहे हैं। लिहाजा उनके प्रचार की गाड़ी गति नहीं पकड़ पा रही है। उन्हें वोटरों के रिझाने में काफी दिक्कतें आ रही हैं। पंचायत चुनाव को लेकर जिस तरह से प्रत्याशियों को इंतजार रहता है। उसी तरह से वोटर भी पंचायत चुनाव का इंतजार पांच वर्ष तक करते हैं। हालांकि इस बार का चुनाव फीका नजर आ रहा है। आसमान छूती मंहगाई प्रत्याशियों के भी कमर तोड़ रही है। वैसे प्रत्याशी जो पैसे के दम पर चुनावी हवा को अपने पक्ष में करने की फिराक में रहते हैं, उन्हे भी दिक्कतें पेश आ रही हैं। इसका सीधा असर पंचायत चुनाव के प्रचार पर पड़ा है। अब जबकि चुनाव के घोषणा की सिर्फ औपचारिकता ही बाकी है। भावी प्रत्याशी और वोटर सभी को अंदाजा है कि अप्रैल में ही चुनाव होने हैं। बावजूद इसके पंचायत चुनाव के प्रचार का पहिया थमा ही नजर आ रहा है। हालांकि चुनावी पंडितों की मानें तो प्रचार में तेजी नहीं आ पाने का सिर्फ मंहगाई ही नहीं है, बार-बार परिसीमन में बदलाव भी इसकी एक बड़ वजह है। सुप्रीम कोर्ट मेेंं मामला एकबार फिर पहुंच जाने से प्रत्याशियों में उहापोह है। आसमान छू रहे बाटी-चोखा की सामग्री के दाम पंचायत चुनाव में हाथ आजमाने वाले कुछ प्रत्याशियों में यह धारणा रही है कि वोटरों को बाटी चोखा के दावत से रिझाया जा सकता है। बलिया में बाटी-चोखा हर दावत की शान मानी जाती है। इस बार के चुनावी सीजन की शुरूआत से ही बाटी चोखा में इस्तेमाल होने वाली लगगभग हर सामग्री का भाव बढ़ा हुआ है। बाटी में प्रयोग में आने वाला चने का सत्तू सौ रूपए से उपर है। वहीं चोखा को जायकेदार बनाने वाला बैंगन भी कम आंखे नहीं तरेर रहा। इसकी वजह से कई प्रत्याशी वोटरों को बाटी-चोखा की दावत नहीं दे पा रहे। मुर्गा-दारू का भी चढ़ा भाव चुनावी दावतों में मुर्गा व दारू भी काफी अहम माना जाता है। लेकिन मुर्गा के भाव में भी बढ़ोत्तरी और बिहार में शराबंदी के कारण सस्ती दारू उपलब्ध नहीं हो पा रही। उल्टे यहां पर ही दारू के दाम बढ़े हुए हैं। इससे चुनावी महफिलों की शान फीकी नजर आ रही है। चुनावी टेम्पो को हाई करने वाले खास प्रकार के वोटर भी इससे परेशान हैं। भावी प्रधान जी के चक्कर काटने के बाद भी उन्हे मायूसी ही हाथ लग रही है। फाग का रंग भी है फीका पंचायत चुनाव हों और ठीक पहले होली का त्योहार आ जाए तो चुनावी रंग चटख हो जाता है। मगर इस बार के पंचायत चुनाव में गांवों में गाए जाने वाले फाग गीतों के आयोजनों पर भी मंहगाई की मार पड़ती नजर आ रही है। फाग गीतों के आयोजनों की अपनी चुनावी फिजा टाइट करने का अहम हथियार बनाने का मन बना चुके भावी प्रत्याशियों के सामने महंगाई मुंह बाए खड़ी हो गई है। नतीजतन फाग गीतों के आयोजन कम दिख रहे हैं। क्योंकि ऐसे आयोजनों में खास किस्म के वोटरों को रिझाने के मुकम्मल इंतजाम करने पड़ते हैं, जिसे भावी उम्मीदवार नहीं कर पा रहे हैं। हिन्दुस्थान समाचार/पंकज

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