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पंचायत चुनाव : चम्बल के बीहड़ों में यादें बनकर रह गए डाकुओं के चुनावी फरमान

रोहित सिंह चौहान इटावा,16 अप्रैल (हि.स.)। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव की डुगडुगी काफी तेजी से बज रही है। ऐसे में इटावा के चंबल के बीहड़ों में भी दूसरे चरण यानि 19 अप्रैल को चुनाव होने हैं। एक समय पर डाकुओं के फरमानों की दहशत के साये में चुनाव हुआ करते थे। डेढ़ दशक पहले डाकुओं के द्वारा "मुहर लगाओ वरना गोली खाओ छाती पर" इस तरीके के फरमान जारी किए जाते थे डाकुओं के द्वारा जारी किए गए फरमान के खिलाफ वोट डालने की हिम्मत इलाकाई लोग नहीं जुटा पाते थे। लेकिन आज इस तरह के नारे इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गए हैं, क्योंकि खूखांर डाकुओं के खात्मे ने इन फरमानों पर पूरी तरीके से विराम लगा दिया है और बीहड़ी इलाको में बसे ग्रामीणों में अमन और चैन कायम है। चंबल का इतिहास इस बात की गवाही देता है कि कई चुनाव खूंखार डाकुओं के फरमानों के कारण असरदायक रहे हैं। इसलिए पुलिस प्रशासन की पूरी निगाह इस पर हमेशा रहती आई है और चुनाव के दरम्यान खास रहती भी है। बेशक आज की तारीख में चंबल से डाकुओं का सफाया पूरी तरह से कर दिया गया है लेकिन पुराने डाकुओं के नाते रिश्तेदार और उनकी करीबियों की गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए संबधित थानों की पुलिस को सचेत किया जाता है। पंचायती, विधानसभा और संसदीय चुनाव में दिखाई देता था कि डाकुओं के फरमानों का असर भले ही ना हो लेकिन इन फरमानों के बिना कोई भी घाटी वासी रह नहीं पा रहा है। आज भले ही डाकुओं के फरमान नहीं हैं लेकिन उन दिनों को याद करके घाटी वासियों की रूह आज भी कांप जाती है। चंबल घाटी में डकैतों का यह फरमान दो दशक तक कमोबेश हर लोकसभा या विधानसभा चुनाव के साथ-साथ पंचायत चुनावों में जारी होता रहा है। चुनावी फरमानों में दिखाई देता था जातीय असर डाकुओं के फरमान की शुरूआत चंबल घाटी में जातीय आधार पर पंचायत चुनाव में 1990 से शुरू हुई। उसके बाद इसका प्रभाव बढ़कर विधानसभा से होते हुए लोकसभा चुनाव तक आ पहुंचा। 1996 में लखना विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरी सपा प्रत्याशी के पक्ष में डाकू रज्जन गूर्जर आदि डकैतों ने फरमान पहली बार जारी किया। जिसका प्रभावी असर देखने को मिला और सपा प्रत्याशी की जीत हुई। राजनैतिक दलों के पक्ष में हुए फरमान सपा प्रत्याशी से पराजीत हुए। भाजपा प्रत्याशी बताते हैं कि प्रचार के दौरान दर्जनों गांव के ग्रामीणों ने इस बात की पुख्ता शिकायत करके उनको अवगत कराया कि फरमान के चलते सपा के पक्ष में मतदान करना उनकी मजबूरी बन गई है। फरमान का असर इस कदर हुआ कि रात के समय डर के वजह से प्रचार कर पाना संभव नहीं हो सका। नतीजतन पराजय का मुंह देखना पड़ा। इस बात की शिकायत चुनाव आयोग से भी की गई लेकिन पुलिस मतदाताओं पर अपनी पकड़ नहीं बना पाई और डाकुओं के फरमान हावी रहे। फक्कड़ ने शुरू किया था फरमान का सिलसिला 1998 के लोकसभा मे भाजपा के टिकट पर उतरी प्रत्याशी के पक्ष में उस समय के कुख्यात डाकू रामआसरे उर्फ फक्कड़ ने चंबल इलाके के कई मतदान केंद्र पर बूथ लूटे थे। जिसके नतीजे मे भाजपा इटावा संसदीय सीट जीतने में कामयाब हो गई, लेकिन जिन शर्तों पर फक्कड़ ने भाजपा प्रत्याशी की मदद की वो चुनाव जीतने के बाद कामयाब नहीं हुई। बाद में फक्कड़ ने अपने गैंग के करीब नौ साथियों के साथ साल 2004 में मध्यप्रदेश के भिंड मे सर्मपण कर दिया था। 1991 के चुनाव में भी दिखा था फरमानों का असर वर्ष 1991 में हुए विधानसभा चुनाव में दस्यु रामआसरे फक्कड़ ने जिस राजनीतिक दल के समर्थन में प्रचार किया। इतना ही नहीं चुनावी रंजिश ने बीहड़ी रंजिश को भी जन्म दिया। दस्यु लालाराम और फक्कड़ के बीच टकराव हुआ। ये दोनों बड़े गिरोह जब आपस में टकराए तो चंबल की वादियों में तमाम नए दस्यु गिरोहों का जन्म हो गया। ये सभी गिरोह अपने-अपने क्षेत्र में इतने प्रभावी हो गए कि लोगों को फरमान जारी करने लगे। राजनीतिक लोग भी इन डकैतों की मदद लेने लगे और अपने पक्ष में फरमान जारी करवाने की जुगत भिड़ाने लगे। इन डकैतों ने अपने फरमानों से जिन लोगों को चुनाव जितवाया। पंचायत चुनाव में भी रहता था बोल-बाला क्वारी नदी की गोद में बसे विंडवा कला गांव में दस्यु सलीम गुर्जर ने अपनी बहन को 1995 में प्रधान बनवाया तो 2000 में अपने बहनोई को प्रधानी का ताज पहनवाया। 2005 के चुनाव में जगजीवन परिहार ने चौरेला से अपने एक परिवारी को चुनाव जितवाया तो कुर्छा, कुंवरपुरा, विडौरी, नींवरी, हनुमंतपुरा सहित दर्जनों पंचायतों में दस्यु निर्भय गुर्जर के लोग चुनाव जीत गए। इतना ही नहीं पंचायतों के चुनाव में मात्र 7, 11 और 21 वोटों पर चुनावी प्रक्रिया पूर्ण कर दी गई । इतना ही नहीं क्षेत्र पंचायत सदस्य चुने गए एक जन प्रतिनिधि सत्यनारायण की तो निर्भय गुर्जर ने गांव आकर उसकी नाक इसलिए काट ली। क्योंकि उसने चुनाव लड़ा और स्कूल के लिए जमीन दी। चकरनगर ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर वर्ष 2000 से 2010 तक निर्विरोध चुनाव होता रहा। निर्भय गुर्जर ने रिर्जव सीट से पिछड़ी जाति वाले को बनावाया था प्रधान साल 2001 मे निर्भय के आंतक के चलते कुवरपुरा कुर्छा गांव के प्रधानपद के लिए कोई भी उम्मीदवार चुनाव मैदान में नहीं उतारा। परिणाम स्वरूप रिर्जव जाति की प्रधान सीट पर निर्भय का खास गुर्जर जाति का बादाम सिंह प्रधान बना दिया गया। जिसकी शिकायत करने पर दुबारा पुलिस सख्ती के कारण चुनाव में सत्यनारायण के चचेरे भाई खगड़जीत प्रधान निर्वाचित हो गये। यह बात भी निर्भय को नागवार लगी। निर्भय के आंतक से दुखी परिवार ने तय किया कि वो कुछ ऐसा करेगा जिससे निर्भय और उसके गैंग की मुश्किले बढ़े और गांव वालों को राहत मिल सके। इसी बीच शिक्षा विभाग की ओर से गांव में प्राथमिक स्कूल के निर्माण कराने का निर्णय किया, जिसके लिए करीब पौन बीघा जमीन की जरूरत थी। कई लोगों से संपर्क करने के बाद जब बात नहीं बनी तो सत्यनारायण परिवार ने स्कूल के लिए अपने खेत की जमीन देने का निर्णय ले लिया। इस निर्णय ने सत्यनारायण परिवार की मुसीबते कुछ और ही बढ़ा दी। जैसे-जैसे स्कूल का निर्माण का कार्य शुरू हुआ निर्भय गैंग ने रात को यहां पर आकर इस निर्माण को ध्वस्त करके चला गया। यह सिलसिला एक दफा नहीं बल्कि तीन दफा हुआ। निर्भय ने खड़गजीत सिंह को प्रधान पद से इस्तीफा देने के लिए उसके चचेरे भाई श्रीराम, मोहन सिंह, रन सिंह और विशुन सिंह का अपहरण कर लिया, लेकिन पुलिस दबाव में निर्भय को करीब 14 दिन बाद सभी अगवा भाईयों को छोड़ना पड़ा। फरमान न मानने पर 1998 में डाकुओं ने निकाली थी आंखे साल 1998 में राम आसरे उर्फ फक्कड़ और कुसमा नाइन ने फरमान ना मानने के एवज में भरेह थाना क्षेत्र में मल्लाह बिरादरी के संतोष और राजबहादुर की आंखें निकालकर के क्रूर सजा दी थी। यह चंबल घाटी में एक ऐसी सजा थी जिसकी कोई दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती है। वैसे संतोष राज बहादुर औरैया जिले के असेवा गांव के रहने वाले थे लेकिन फरमान ना मानने के एवज में दोनों को घर से उठाकर 10 किलोमीटर दूर ले जाकर के आंखें निकाल कर क्रूरतम सजा दी गई। 200 गांव में रहता था डाकुओं का असर इतिहास पर नजर डाले तो बीहड़ के 200 गांव एक अर्से से दस्यु प्रभावित रहे हैं। ग्रामपंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों तक यहां खूंखार डाकुओं के फरमान पर मतदाता वोट डालने को विवश हुए हैं। बीहड़ की धरती गवाह है कि जिसने भी दस्यु सरगनाओं की हुक्मउदूली की उसे परिणाम भुगतना पड़ा। बीते दो दशक के दौरान दर्जनों से अधिक कुख्यात डकैत या तो ढेर कर दिए गए या आत्मसर्पण कर जेल पहुंच गए। डाकुओं का था कभी बोलबाला दस्यु सम्राट श्रीराम, लालाराम, निर्भय गुर्जर, रामआसरे उर्फ फक्कड़, कुसमा नाइन, फूलन देवी, सलीम उर्फ पहलवान, रज्जन गूर्जर, गंभीर सिंह, चंदन, जगजीवन परिहार ऐसे नाम हैं जो बीहड़ वासियों के लिए वर्षों आतंक का पर्याय बने रहें। आज चंबल में कोई भी डाकू नहीं है तो फिर फरमानों का असर कैसे होगा, लेकिन डाकुओं के फरमानों की चर्चाएं जरूरी सुनाई दे रही हैं। चकरनगर इलाके के बीहड़ में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरि तिवारी ने बताया कि, करीब डेढ़ दशक पहले बीहड़ के इलाकों में होने वाले चुनाव में डाकुओं के फरमान चुनावी रिजल्ट पर खासा असर डाला करते थे। बड़े-बड़े राजनेता जीत हासिल करने के लिए डाकुओं की शरण में जाकर अपने पक्ष में फरमान जारी करवाया करते थे। डकैतों के फरमान को अनसुना करने वालों को अपनी जान देकर कीमत चुकानी पड़ती थी। हिन्दुस्थान समाचार

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