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महाशिवरात्रि व्रत के प्रधान अंग रात्रि जागरण और उपवास : आचार्य द्विवेदी

प्रयागराज, 10 मार्च (हि.स.)। श्री शारदा ज्योतिष कार्यालय राजरूपपुर प्रयागराज के आचार्य नागेश दत्त द्विवेदी ने बुधवार को बताया महाशिवरात्रि व्रत के प्रधान अंग रात्रि जागरण और उपवास है। इस व्रत में उपवास की प्रधानता क्यों हुई, यह रात में ही क्यों होता है, इन सब बातों को जानने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि ’उपवास’ शब्द का अर्थ “आहारनिवृत्तिरुपवासः“ अर्थात् निराहार रहने को उपवास कहते हैं। किन्तु इस व्याख्या के अंदर ही इसके वास्तविक अर्थ का भी संकेत है। ’आङ’ पूर्वक ’हृ’ धातु से कर्मवाच्य में ’घञ्’ प्रत्यय लगने से ’आहार’ शब्द व्युत्पन्न होता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कुछ आहरण व संचय किया जाता है, वही आहार है। ’उपवास’ शब्द का एक अर्थ यह भी है, ’किसी के समीप रहना’, यहां ’’शिव के समीप’’ होना है। उपनिषदों में जिसे ’शान्तं शिवमद्वैतं यच्चतुर्थं मन्यन्ते’ कहा गया है, उस शिव के समीप जाने से स्वभावतः जीव के मन-प्राण की समस्त रंगीन बत्तियां अपने-आप बुझने लगती हैं। इसी से उपवास का अर्थ होता है आहार-निवृत्ति अर्थात् सूक्ष्म, स्थूल एवं स्थूलतर आहार का अत्यन्त अभाव। यह उपवास विधिपूर्वक किया जाय तो बहिरंग अनुष्ठानों में कमी होने पर भी कोई हानि नहीं होती। इसी कारण इस पर्व में उपवास ही प्रधान अंग है। आचार्य ने कहा कि शिवरात्रि-व्रत रात्रि को ही क्यों होता है, चतुर्दशी और अमावस्या इन तिथियों के साथ इसका योग क्यों हुआ, इन प्रश्नों का उत्तर जानते हैं। शास्त्र में दिन और रात को नित्य-सृष्टि और नित्य-प्रलय कहा गया है। एक से अनेक और कारण से कार्य की ओर जाना ही सृष्टि है। और ठीक इसके विपरीत अर्थात् अनेक से एक और कार्य से कारण की ओर जाना प्रलय है। दिन में हमारा मन, प्राण और इन्द्रियां हमारे आत्मा के समीप भीतर से बाहर विषय की ओर दौड़ती हैं और विषयानन्द में ही मग्न रहती हैं। पुनः रात्रि में विषयों को छोड़कर आत्मा की ओर, अनेक को छोड़कर एक की ओर, शिव की ओर प्रवृत्त होती हैं। हमारा पापी मन दिन में प्रकाश की ओर, सृष्टि की ओर, भेद-भाव की ओर, अनेक की ओर, जगत की ओर, कर्मकाण्ड की ओर जाता है और पुनः रात में लौटता है अन्धकार की ओर। दिन में कारण से कार्य की ओर जाता है और रात में कार्य से कारण की ओर लौट आता है। इसी से दिन सृष्टि का और रात प्रलय का द्योतक है। ’नेति नेति’ की प्रक्रिया द्वारा समस्त भूतों का अस्तित्व मिटाकर समाधियोग में परमात्मा से आत्मसमाधान की साधना ही शिव की साधना है। इसलिये रात्रि ही इसका मुख्य काल, अनुकूल समय है। साधना में “यत्र यत्र मनो याति ब्रह्मणस्तत्र दर्शनम्“ इस प्रक्रिया का आरम्भ होने से ही शिवरात्रि व्रत का अनुष्ठान सार्थक होता है। हिन्दुस्थान समाचार/विद्या कान्त

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