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बुन्देलखण्ड को अन्ना प्रथा से निजात दिला सकती है चारे की फसल "लुसर्न" - डा. यू.एस. गौतम

बांदा, 22 मई (हि.स.)।महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में दुग्ध क्रांति लाने वाली लुसर्न चारे की फसल से बुन्देलखण्ड में वर्ष भर चारे की व्यवस्था की जा सकती है। आवश्यकता है कि इस फसल को चारे की मुख्य फसल के रूप में सम्मिलित करने की। यह फसल अन्ना प्रथा की समस्या से निजात दिला सकती है। यह बातें कृषि विश्वविद्यालय, बांदा के कुलपति डा. यू.एस. गौतम ने एक चर्चा के दौरान कही। उन्होंने कहा कि बुन्देलखण्ड के कृषकों के लिये सबसे बड़ी समस्या अन्ना प्रथा है। यह प्रथा कब कुप्रथा में बदल गयी, आम जनमानस को पता ही नहीं चला। आज स्थिति गम्भीर एवं भयावह हो गयी है। अन्ना पशुओं द्वारा किसानों की फसल को अत्याधिक नुकसान पहुंचाया जा रहा है, जिससे उनकी आमदनी घट रही है। एक तरफ किसान अन्ना प्रथा से परेशान है, तो दूसरी तरफ उनका खेती किसानी से मोह भी भंग हो रहा है और वह रोजगार की तलाश में पलायन करने पर मजबूर हो रहे है। अन्ना प्रथा के प्रमुख कारणों में से एक पशुओं को वर्ष भर चारे की कमी होना है। चारे की कमी को दूर करके इस प्रथा से हमेशा के लिये छुटकारा पाया जा सकता है। दूध का उत्पादन बढ़ाने में सहायक डा. गौतम ने बताया कि मई माह की इस भीषण गर्मी में भी हरी-भरी यह फसल आपका मन लुभाएगी। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में दुग्ध क्रांति लाने वाली लुसर्न की फसल का बांदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में स्थित समन्वित कृषि प्रणाली (आईएफएस) इकाई में बुन्देलखण्ड में संभावनाएं के लिए प्रक्षेत्र पर प्रयोग किया जा रहा है। विश्वविद्यालय के आईएफएस शोध इकाई के वैज्ञानिक डा. अनिकेत कल्हापुरे द्वारा किए गए इस परीक्षण में बुन्देलखण्ड की जलवायु में पुरे साल भर पशुओं को पोषक हरा चारा देने के लिए लुसर्न की फसल को सफल पाया गया। यह फसल पशुओं को हरा चारा प्रदान करेगी। डा. कल्हापुरे ने बताया कि लगातार तीन से चार साल चलने वाली इस फसल में 18 से 22 प्रतिशत क्रुड प्रोटीन और 25 से 35 प्रतिशत क्रुड फाइबर पाया जाता है, जो पशुओं में दूध का उत्पादन बढ़ाने में और उनकी अच्छी सेहत बनाने में सहायक होते है। मादा पशु के गर्भधारणा में भी उपयोगी डा. कल्हापुरे ने यह भी बताया कि इस चारे के उपयोग से मादा पशु समय से ऋतु (गरम होना) में आती है और गर्भधारणा में भी उपयोगी होता है। इस चारे की बुवाई से भूमि में नाइट्रोजन स्थिरीकरण का काम सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा तेजी से किया जाता है। बरसीम की परिवार से नाता रखने वाली लुसर्न का वैज्ञानिक नाम मेडीकागो सटेवा है किन्तु बरसीम की फसल सिर्फ चार से पांच महीने चलती है और लुसर्न लगातार तीन से चार साल। इस फसल को “रिजका” और “अल्फाल्फा” के नाम से भी जाना जाता है। इसकी पहली कटाई 45 से 55 दिन में होती है और उसके बाद की कटाईयां हर 21 से 25 दिन में की जाती है। बांदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में पाया गया है कि हर कटाई में इस फसल से प्रति एकड़ 20 से 22 क्विंटल हरा चारा मिलाता है। इस फसल का बुवाई का समय नवम्बर महीने पहले दो हफ्ते होता है। जिसकी भूमि की तैयारी रबी फसल के साथ ही की जाती है। इस फसल से सम्बन्धित अधिक जानकारी के लिए डा. अनिकेत हनुमंत कल्हापुरे, सहायक प्राध्यापक (शस्यविज्ञान), मोबाईलः 9423477035 से सम्पर्क कर सकते है। हिन्दुस्थान समाचार/अनिल

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