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शब्दों के चयन पर सवाल हो सकता है, समर्पण की भावना पर नहीं, कटारिया मामले में बोले इतिहासविद्

-इतिहासविदों व शहर के प्रबुद्धजनों ने जारी किया वक्तव्य उदयपुर, 15 अप्रैल (हि.स.)। गुलाबचंद कटारिया ने भाषण के दौरान अतिरेक उत्साह में महाराणा प्रताप का हवाला देते हुए जो वर्णन किया, उसमें शब्दों के चयन को लेकर सवाल हो सकते हैं, लेकिन उनके महाराणा प्रताप के प्रति सम्मान और समर्पण पर प्रश्न नहीं किए जा सकते। एक राई का पहाड़ बनाना राजनीतिक प्रखण्ड का व्यवहार है। जिनके पुरखे महाराणा प्रताप के खिलाफ अकबर की ओर से युद्ध लड़े, आज वे महाराणा प्रताप के सम्मान के लिए लड़ने की बात कर रहे हैं। यह शुद्ध रूप से राजनीति है। उदयपुर के इतिहासविदों व प्रबुद्धजनों ने नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया के महाराणा प्रताप के सम्बंध में दिए गए उदाहरण में अनुचित शब्दों के प्रयोग को लेकर प्रेस वक्तव्य जारी किया। वरिष्ठ इतिहासविद प्रो. केएस गुप्ता, छगनलाल बोहरा, डाॅ. महावीर प्रसाद जैन, गौरी शंकर दवे व राष्ट्रवादी चिंतक मनोज जोशी ने गुरुवार को जारी संयुक्त प्रेस वक्तव्य में कहा कि मामले को राजनीतिक रूप देने वाले ये वही लोग हैं जो राजपूतों के अकबर को समर्थन का बचाव करते हैं और जब प्रताप की सेना में भागीदारी करने वाले लोगों के परिवार से आने वाले व्यक्ति अपने भाषाई स्वरूप से कुछ सम्भाषण कर दें तो राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए सिगड़ी जला लेते हैं। इस वक्त एक किस्सा जरूर याद आ जाता है। मेवाड़ के प्रसिद्ध मेवाड़ी भाषा के कवि आदरणीय नाथूदान महियारिया ने दिल्ली में जयपुर महाराजा मानसिंह और मेवाड़ के तत्कालीन महाराजकुमार भगवतसिंह के मिलने और गले लगने पर एक छन्द लिखा, ‘‘मान भगवत दोई मल्या, ई में हाण न लाभ, जै मल जाता मान प्रताप, तो मिट जाती मुगलान, मिट जाती मुगलान, सुणो आमेर नरेश, नेहरू बेटी ले नहीं अब किण रेसी आमेर।।’’ प्रबुद्धजनों ने कहा कि शायद मेवाड़ की अस्मिता को बचाना मेवाड़ की जिम्मेदारी है। वैसे तो महाराणा प्रताप के सगे भाई तक उन्हें छोड़ अकबर के दरबार में चले गए, लेकिन इससे मेवाड़ के आत्मविश्वास में कोई अन्तर नहीं आया। महाराणा प्रताप ने पूरे शौर्य और उत्साह से आजादी का संघर्ष किया। राजनीति करने के लिए कोई कुछ भी कहें, लेकिन राजनीति करने के लिए महाराणा प्रताप को मोहरा बनने का प्रयास नहीं करें। राजनीति अपनी जगह है और महाराणा प्रताप अपनी जगह। उन्हें प्रातःस्मरणीय ही रहने दें। गत दिनों में जो हुआ अब बन्द होना चाहिए। साथ ही उन लोगों को यह अधिकार बिल्कुल नहीं है जिनके पुरखों ने राष्ट्रद्रोह करते हुए चित्तौड़ का साथ छोड़ अकबर के दरबार में मलेच्छों के रिश्ते और भोजन को स्वीकार किया था। प्रबुद्धजनों ने कहा कि समाज का उद्वेलन महाराणा प्रताप के असम्मान को लेकर होना चाहिए। इसके लिए सामने आ रहे विविध संगठनों को सत्तर वर्षों तक राजनीति के सिरमौर रहे लोगों से प्रश्न करना चाहिए कि अब तक पाठ्यपुस्तकों में अकबर महान् और महाराणा प्रताप पराजित क्यों हैं? वर्तमान सरकार के शिक्षा मंत्री ने हाल ही में पाठ्यक्रम में बदलाव कर महाराणा प्रताप के पाठ को कम किया है और अकबर और मुगल शासन को महिमा मंडित किया है। इसका जवाब भी तो मांगा जाना चाहिए। हिन्दुस्थान समाचार/सुनीता कौशल/संदीप

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