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सावरकर की बौद्धिकता को स्वीकार नहीं कर पाए नेहरू-प्रो. तंवर

उदयपुर, 28 मई (हि.स.)। भारतीय स्वतंत्रता के प्रतिमान और राष्ट्रवाद के प्रतीक विनायक दामोदर सावरकर ने स्वतंत्रता के बाद भारत की सरकारों को उनकी गलतियों का आईना दिखाया। उन्होंने भारत की सैन्य नीति की आलोचना की। उन्होंने कहा कि 1950 में ही कह दिया कि भारत ने सैन्य और सामरिक रूप से स्वयं को मजबूत नहीं किया तो आने वाले समय में यह देश के लिए आत्मघाती कदम होगा। इसका परिणाम 1962 में चीन युद्ध में दिखाई दिया। नेहरू की कूटनीति और विदेश नीति की कठोर आलोचना की। उन्होंने इसके लिए नेहरू की आलोचना भी की। इन सभी कारणों के राजनीतिक प्रभाव को देखते हुए पं. नेहरू ने सावरकर को हाशिए पर धकेलना शुरू कर दिया। यह बात भारतीय इतिहास संकलन समिति चित्तौड़ प्रांत की ओर से आयोजित ‘युवाओं के प्रेरणा स्रोत - सावरकर’ विषयक ई-विचार गोष्ठी के मुख्य वक्ता कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर एमिरेट्स राघवेन्द्र तंवर ने की। उन्होंने कहा कि सावरकर एक प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः स्वातंत्र्यवीर या वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का आधार सावरकर को माना जाता है। वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाटककार भी थे। उन्होंने परिवर्तित हिन्दुओं के हिन्दू धर्म को वापस लौटाने के लिए सतत प्रयास किए। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. के.एस. गुप्ता ने बताया कि सावरकर ने इटली के महान क्रांतिकारी जोसेफ मेजिनी से प्रभावित होकर ही अपने तरुण अवस्था में मित्र मेला का गठन किया। उनकी जीवनी का हिन्दी में अनुवाद किया। इसके बाद 1904 में अभिनव भारत नामक संगठन का गठन कर विदेशी वस्तुओं की होली जलाने का विचार पहली बार प्रस्तुत किया। इस प्रकार भारत में असंतोष पैदा करने का सर्वप्रथम प्रयास सावरकर ने किया। सभी उनके दो काला पानी की सजा के बारे में चर्चा करते हैं लेकिन उनकी बौद्धिक विशालता और उसके प्रभाव की चर्चा करने से चूक जाते हैं। उन्होंने भारत की एक सामूहिक ‘हिन्दू’ पहचान बनाने के लिए हिंदुत्व का शब्द गढ़ा। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, प्रत्यक्षवाद (चवेपजपअपेउ), मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यावहारिकता और यथार्थवाद के तत्व थे। सावरकर एक कट्टर तर्कबुद्धिवादी व्यक्ति थे जो सभी धर्मों के रूढ़िवादी विश्वासों का विरोध करते थे। कार्यक्रम का सम्बोधित करते हुए कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि इतिहास संकलन के क्षेत्रीय संगठन मंत्री छगनलाल बोहरा ने अपने उद्बोधन में कहा कि 15 अगस्त 1947 को सावरकर ने भारतीय तिरंगा एवं भगवा दोनों का एक साथ ध्वजारोहण किया। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सावरकर ने पत्रकारों से कहा था कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दुःख है। उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमाएं नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती है। कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष मदन गोपाल व्यास ने बताया कि गांधीजी के हत्या में सावरकर के सहयोगी होने का आरोप लगा जो सिद्ध नहीं हो सका। एक सच्चाई यह भी है कि महात्मा गांधी और सावरकर-बन्धुओं का परिचय बहुत पुराना था। सावरकर-बन्धुओं के व्यक्तित्व के कई पहलुओं से प्रभावित होने वालों और उन्हें ‘वीर’ कहने और मानने वालों में गांधी भी थे। कार्यक्रम के समापन पर धन्यवाद जिला मंत्री चैनशंकर दशोरा ने किया। वहीं जिला अध्यक्ष जीवनसिंह खरकवाल ने सावरकर पर एक प्रदर्शनी और सावरकर कक्ष विश्व संवाद केन्द्र या किसी संस्थान में निर्मित करने की सलाह दी। गोष्ठी में प्रांतीय अध्यक्ष डाॅ. मोहनलाल साहू, प्रांतीय मंत्री शिवकुमार मिश्रा उपस्थित थे। हिन्दुस्थान समाचार/सुनीता कौशल / ईश्वर

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