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निराश्रय दीन जीवों के उद्धार का एकमात्र साधन पुष्टिभक्ति मार्ग: मंथन

08/05/2021 गुना 8 मई (हि.स.) । श्रीमद् वल्लभाचार्यजी ने निराश्रित दीन जीवों के उद्धार का एकमात्र साधन पुष्टिभक्ति मार्ग को बताया है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही शुद्ध हैं। इसी से मत का नाम शुद्धाद्वैत पड़ा है। श्रीमहाप्रभु ने अपना भक्ति कर्मक्षेत्र बृज के गोवर्धन धाम जतीपुरा को बनाया। उक्त विचार अंतर्राष्ट्रीय पुष्टिमार्गीय वैष्णव परिषद के प्रांतीय प्रचार प्रमुख कैलाश मंथन ने पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्रीमद् बल्लभाचार्यजी की 544वीं जयंती पर वर्चुअल वार्ता प्रसंग के दौरान कही। कोरोना कर्फ्यू के चलते कोविड गाइडलाइन का पालन करते हुए अंचल में घरों में ही बल्लभाचार्यजी की जयंती उत्साह से मनाई गई। इस दौरान प्रमुख 150 पुष्टिभक्ति केंद्रों एवं श्रीनाथजी के मंदिरों में सिर्फ मुखिया द्वारा ही विशेष मनोरथ किए गए। मंथन ने कहा कि पुष्टिमार्ग का अर्थ होता है भगवान के अनुग्रह का पथ। परब्रह्म श्रीकृष्ण भगवान का अनुग्रह ही एकमात्र साधन है। यह पुष्टिभक्ति मार्ग सब प्राणियों के लिए वर्ण, जाति, देश किसी भी भेदभाव के बिना सर्वदा तथा सर्वथा उपादेय है। भक्ति द्वारा ही भगवान का अनुग्रह हमें प्राप्त होता है। कोरोना के चलते लगातार दूसरे वर्ष संकीर्तन प्रभातफेरी नहीं निकाली गई। इस दौरान घरों में ही सुबह 7 बजे शंखनाद के साथ ठाकुरजी के चित्र के सम्मुख दीप प्रज्जवलित कर 21 मालाएं अष्टाक्षर मंत्र का जाप किया गया। इसके बाद पालना महोत्सव एवं दोपहर 11 बजे तिलक आरती हुई। इस मौके पर बमोरी, फतेहगढ़, भौंरा, परवाह, बनेह, ऊमरी, कालोनी, लालोनी, भिड़रा सहित ग्रामीण क्षेत्रों में घर-घर में श्रीमहाप्रभु की जयंती पर कार्यक्रम संपन्ना हुए। ध्यान रहे अंचल में श्रीकृष्ण भक्ति केंद्रों से करीब ढाई लाख पुष्टिमार्गीय वैष्णव जुड़े हुए हैं। श्रीमहाप्रभु ने श्रीमद्भागवत का प्रचार कर जीवों पर कृपा की इस मौके पर मंथन ने वर्चुअल वार्ता प्रसंग में कहा कि बल्लभाचार्यजी द्वारा मुगलकाल में श्रीनाथजी का विग्रह प्रकट हुआ, जो कालांतर में मारवाड़ स्थित उदयपुर राज्य के नाथद्वारा में वर्तमान तक स्थित है। श्री महाप्रभु ने तीन बार भारत भ्रमण कर 84 बैठकों में श्रीमद् भागवत का प्रचार कर जीवों पर कृपा की। मुगलकाल की विषम परिस्थितियों में सनातन धर्म संस्कृति की रक्षा की। उन्होंने अनेकों ग्रंथों की रचना की। श्रीमद् भागवत पर सुबोधिनी नामक ग्रंथ में भगवत तत्व की व्याख्या की। संवत 1587 में 52 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आसुर व्यामोह लीला कर देह त्यागी। हिन्दुस्थान समाचार / अभिषेक

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