कहीं विलुप्त ना हो जाए बौद्ध कालीन स्तूप 'दैत्य का छिट्टा'
कहीं विलुप्त ना हो जाए बौद्ध कालीन स्तूप 'दैत्य का छिट्टा'

कहीं विलुप्त ना हो जाए बौद्ध कालीन स्तूप 'दैत्य का छिट्टा'

- संरक्षण के अभाव में समाप्त हो रहा है स्तूपों का अस्तित्व बेगूसराय, 23 दिसम्बर (हि.स.)। बिहार की साहित्य-संस्कृति-उद्योग की राजधानी बेगूसराय ऐतिहासिक धरोहर से भी परिपूर्ण है। इसका प्रमाण है हरसाई स्तूप, जयमंगला गढ़ एवं बराबर खुदाई में पाल कालीन तथा बौद्ध धर्म से संबंधित अवशेषों का मिलना। लेकिन सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधि की उपेक्षा के कारण ऐतिहासिक धरोहर का अधिक दिनो तक टिके रहना असंभव होता जा रहा है। इसी कड़ी में काबर क्षेत्र के आसपास मंझौल थुम्ब से नटियाही डीह तक मौजूद 11 स्तूप बहुत कुछ कह रहा है। स्थानीय स्तर पर 'दैत्य का छिट्टा' नाम से प्रसिद्ध स्तूपों में से हरसाई स्तूप मंझौल-गढ़पुरा नमक सत्याग्रह पथ के किनारे नहर के करीब स्थित है। यहां चार स्तूपों का एक समूह है जो संपूर्ण बिहार में पाए जाने वाले अन्य स्तूपों से पूरी तरह अलग है। तीन स्तूप के मध्य इसका एक मुख्य स्तूप है जिसमें एक पश्चिम, दूसरा दक्षिण तथा तीसरा उत्तर दिशा में है। सब लगभग एक समान दूरी पर मिलता है। मुख्य स्तूप की ऊंचाई करीब 65 फीट एवं व्यास करीब 360 फीट है। पाल कालीन साहित्य में भगवान बुद्ध के अंगुत्तराप भ्रमण तथा बौद्धकाल में जयमंगला गढ़ के महाविहार होने का संकेत मिलने से इन स्तूपों को बौद्ध कालीन माना जा रहा है। पुरातत्त्ववेत्ता का मत है कि मिट्टी के टीले के रूप में मौजूद ये स्तूप भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी के बने हैं। हरसाई स्तूप के आसपास के खेतों से भवनों के भग्नावशेष बराबर मिलते रहते हैं। किवदंती के अनुसार पौराणिक काल में यहां दैत्यों का बसेरा था तथा उसी के मध्य रहती थी मां जयमंगला। एक बार दैत्यराज जयमंगला से शादी करने पर अड़ गया तो, माता ने शर्त रखी थी काबर को पूरी रात में मिट्टी से भर दोगे तो मैं शादी कर लूंगी, अन्यथा तुम्हें यहां से बाहर भागना होगा। दैत्यों ने मिट्टी भरना शुरू किया, तभी आधी रात को ही दैवीय बल से सुबह का उजाला फैल गया। जिसके बाद जान के भय से भागते दैत्य माता जयमंगला का एक स्तन काट कर भाग निकले तथा इस क्रम में जहां-जहां मिट्टी भरने वाला छिट्टा फेंका गया वह स्तूप के रूप में है एवं स्थानीय लोग इसे दैत्य का छिट्टा कहते हैं। लेकिन सरकारी उदासीनता से यह विलुप्त हो रहा है, कई स्तूपों को काटकर जहां स्थानीय लोगों ने खेत बना लिया है, तो वहीं जो बचे हैं उसे भी धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है। संरक्षण की बातें की जाती है, लेकिन संवेदनहीनता के कारण इसका क्षय लगातार जारी है। स्तूप को संरक्षित एवं सुव्यवस्थित किए जाने के लिए गढ़पुरा सीओ द्वारा 2014 में जमीन की मापी कर तथा स्तूप से लेकर मुख्य सड़क तक पथ निर्माण के लिए प्रतिवेदन भेजा गया था। लेकिन आगे की कार्यवाही के लिए कोई दिशा-निर्देश नहीं मिल पाई है। क्षेत्रीय इतिहास और पुरातत्व पर शोध करने सुशांत भास्कर एवं डॉ. कुंदन कुमार का कहना है कि बौद्ध कालीन इतिहास में इस क्षेत्र का बहुमूल्य योगदान है। अपने भग्नावशेष में संपूर्ण इतिहास को समेटे इन स्तूपों का संरक्षण करते हुए विकास कर दिया जाए तो यह अंतरराज्यीय एवं अंतरराष्ट्रीय पर्यटन केन्द्र बन सकता है। हिन्दुस्थान समाचार/सुरेन्द्र/चंदा-hindusthansamachar.in

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