एक अदद तिरंगे की आस है इस मजार को
एक अदद तिरंगे की आस है इस मजार को

एक अदद तिरंगे की आस है इस मजार को

बक्सर ,12 सितम्बर (हि .स .) ।बक्सर जिला मुख्यालय से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर कथकौली गाँव के मध्य स्थित मजार आज भी अपने गर्भ में वीरता की गौरवमयी गाथा समेटे हुए है ।जब भारत को अंग्रजोंं के हाथोंं गुलाम होने से पूर्व अपने अंतिम प्रयास में 23 अक्तूबर 1764 को लड़े गये अंतिम युद्ध के दौरान देश की अस्मिता के लिए प्राण न्योछावर करने वाले सौ सपूतोंं के शवोंं को यहांं दफनाया गया था पर अफ़सोस इस बात को लेकर है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस मजार का जिक्र कहींं भी नहींं है। ना ही कथकौली के मैदान में लड़े गये सत्तापरिवर्तन के इस अंतिम युद्ध को वह स्थान हासिल है जो हल्दीघाटी के युद्ध और झांंसी के युद्ध को दिया गया है ।वर्तमान केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इस कथन से पूरी सहमति जताई जा सकती है जिसमें उन्होंने कहा था कि अब भारतीय इतिहास को अपने नजरिये से लिखने की जरूरत है । संक्षिप्त में बात यह है कि 23 अक्तूबर 1764 के दिन बक्सर स्थित कथकौली के मैदान में भारत पर पूर्ण प्रभुत्व स्थापित करने के लिए अंग्रेजों की सेना हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में भारत की मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय अवध के नवाब शुजाउदौला और बंगाल के नवाब मीरकासिम की संयुक्त सेना से लड़ी थी ।हलांंकि पांच घंटे से भी कम चले इस युद्ध में भारत की संयुक्त सेना को समर्पण करना पड़ा था ।परिणाम स्वरूप पश्चिम बंगाल और उड़ीसा व तत्कालीन बंगलादेश की दीवानी और राजस्व पर ईस्ट इंडिया कंपनी का वर्चस्व स्थापित हुआ था ।यहांं यह कहना अनिवार्य है कि यहांं से लूटी हुई दौलत के बल बूते ही इस दौर में ब्रिटेन की औद्योगिक क्रान्ति सफल रही थी । इस युद्ध के दौरान मारे गये भारत की संयुक्त सेना के सौ जवानोंं को बक्सर स्थित कथकौली गांव के मध्य एक कुएंं में सामूहिक रूप से दफनाया गया था ।बाद के दिनों में स्थानीय लोगोंं ने पहल कर इस कुएंं को एक मजार की शक्ल दे दी ।पर आज अफसोस इस बात को लेकर है कि भारतीय इतिहास में इस ओजस्वी लड़ाई का जिक्र करने में हमेशा ही कोताही बरती गई है । पर्यटकीय पृष्ठभूमि वाले बक्सर की उपेक्षा केन्द्रीय पर्यटन विभाग और राज्य पर्यटन विभाग समेत स्थानीय जनप्रतिनिधि भी करते आ रहे हैं। इस युद्ध के नायकोंं में से एक बक्ते अली की कहानियांं आज भी कही जाती हैंं जब अंग्रेज सिपाहियों की क्रूरता से लड़ते हुए उन्होंने कथकौली ग्रामीण की भारतीय महिलाओं की आबरू बचायी थी।यह कहनी आल्हा- उदल की कहानियों से जरा भी कम नहींं । |गौरतलब है कि बक्सर की भूमि पर राष्ट्रीय पैमाने पर दो ही लड़ायां लड़ी गईंं। प्रथम युद्ध बक्सर स्थित चौसा के मैदान में हुआ था। इस दौरान मुग़ल शासक हुमायू अफगान नायक शेरशाह के हाथोंं शिकस्त खायी थी।इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली पर पहली बार अफगानों की हुकूमत कायम हुई थी । और दूसरा युद्ध कथकौली में हुआ था जिसमें फतह हासिल कर सम्पूर्ण भारत पर अंग्रजोंं ने दबदबा कायम किया था । कथकौली युद्ध का यह मजार आज स्मारक बनाये जाने की आस में एक अदद तिरंगे की बाट जोह रहा है । हिन्दुस्थान समाचार /अजय मिश्रा /विभाकर-hindusthansamachar.in

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