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सहरसा के बनगांव में 18वीं सदी से मनायी जाती है अलौकिक होली

सहरसा,26 मार्च (हि.स.)।वसंत का दुरागमन और फाल्गुन का आगमन,मन का मचलना और पांव का फिसलना तो लाज़मी है। डिजीटल प्लेटफार्म जिसने आज समाज के साथ साथ समय को भी अपने आगोश में ले रखा है। जिससे आधुनिकता की आंधी तो आयी है, लेकिन सभ्यता और संस्कृति रूपी वास्तविकता की नींव डगमगा सी रही है। ऐसे आधुनिकता की कालनेमि में बिहार की सबसे बड़ी आबादी वाले गांव, बनगांव में आज भी सभ्यता और संस्कृति के प्रतिमान के रूप में होली 18वीं सदी से लेकर आज तक निरंतर चलती चली आ रही है।एक प्रसिद्ध और आदर्श कहावत है "जे जीबे से खेले फाग" अर्थात अगर ज़िन्दगी जी रहे हैं तो फगुआ खेलना धर्म भी है और अपनी सभ्यता, संस्कृति के प्रति निष्ठा रूपी कर्तव्य भी।यूं तो होली देश के विभिन्न हिस्सों में मनायी जाती है।लेकिन बिहार के सहरसा जिला मुख्यालय से आठ किलोमीटर पश्चिम बनगांव की होली अपने आप में ब्रज की होली की तरह बेमिसाल है । घमौर होली के रूप में प्रख्यात यह होली अर्धनग्न होकर मनायी जाती है । संत शिरोमणि गोस्वामी लक्ष्मीनाथ बाबाजी द्वारा 18 वीं सदी में शुरू की गयी होली की यह परंपरा आज भी उतनी ही वैचारिक व प्रासंगिक है, जितनी कि प्रारंभिक काल में थी।सूर्य की पहली लालिमा के साथ धूल-मिट्टी के संग जोगीरा की तान जब ढोलक से ताल मिलाती है तो मानो परिवेश में प्यार के भाव से समूचा माहौल होलीमय हो जाता है।ज्यों- ज्यों सूर्य की किरणसर के ऊपर पहुँचती है त्यों-त्यों माहौल होली से 'होरी' में परिवर्तित हो जाता है। मैथिलि भाषा में "ल" वर्ण के जगह "र" वर्ण का उच्चारण होता है,जिससे होली को 'होरी' कही जाती है। यहीं 'होरी' बलजोरी के रूप में प्रतिस्थापित होती है। लोग अर्धनग्न होकर टोली बनाकर एक दूसरे से गले मिलते हुए,एक दूसरे के दरवाजे पर पहुंचते हैं। वहां उनका स्वागत रंग और अबीर के संग मिष्ठान के साथ किया जाता है। वहां से लोग यह संदेश देते हैं कि आप अकेले नहीं हैं बल्कि पूरा समाज आपके साथ सुख- दुख में खड़ा है । फिर लोग सभी के दरवाजे होते हुए, गांव के मध्य एक जगह एकत्रित होते हैं।वहां के लोगों कि एक प्रमुख और अद्भुत खासियत है कि लोग अमूमन अंतिम समय में एक -दूसरे को कंधा देते हैं चाहे भले ही ज़िन्दगी भर उसे गिराने की तरकीब क्यों न कि हो। बनगांव की होली की टोली में लोग एक -दूसरे को कन्धा पर उठाते है और होरी बलजोरी के प्रतिमान के रूप में रंग -अबीर के संग गुथम- गुथी करते हैं। जिस रंग में, रंग की रीति और प्रेम की प्रीति अविरल प्रवाहित होती है । एक तरफ जहां लोकगीत और जोगीरा से माहौल रंगीन होता है तो दूसरी और बुजुर्ग अपने नवतुरिया को कंधे पर उठाकर उसे यह सीख देते हैं कि कोई भी इंसान बड़ा या छोटा नहीं होता। वह अपने नवतुरिया को यह संदेश भी देते हैं कि अपनी सभ्यता और संस्कृति को यूँ ही बचाए रखें । नवयुवक भी अपने बुजुर्ग को कंधे पर उठाकर उन्हें यह आभास करवाते हैं कि हम अपने कर्तव्यों के निर्वहन में पूर्ण रूपेण समर्पित हैं।इस होरी (बलजोरी)मेंअमीरी-गरीबी,जात-पात एवं धर्म का कोई बंधन नहीं है। बनगांव की होली में केवल प्रेम की अविरल धारा बहती है।प्रेम रूपी भाव से समूचा गांव प्रफुल्लित रहता है। गांव के वातावरण में सामाजिक सद्भाव ,सभ्यता और संस्कृति के प्रति लगन की लालिमा उभार रही होती है, जिससे आपसी भाईचारा की डोर मजबूत होती है।ऐसी सामाजिक सदभावना देखकर मन तृप्त होता है। लोगों के बीच सामाजिक द्वेष का भाव ख़त्म होता है। जिससे हमारा समाज संपूर्ण मानव जाति को मनुष्यता के एक सूत्र में बंधता हैं।ढलते सूर्य की लालिमा के संग पूरा गांव एक दूसरे को साधुवाद देते हैं। होली के समापन में शास्त्रीय संगीत का जादू लोगों के मन को इस प्रकार से मुग्ध करता है कि प्रत्येक ह्रदय में बसंत की मधुमयता छा जाती है।बनगांव की होली कुछ ऐसी होती है। हिन्दुस्थान समाचार/अजय

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