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इंडो-पैसिफिक रणनीति : एक ही बिस्तर में अलग-अलग सपने

बीजिंग, 28 मई (आईएएनएस)। अमेरिका या भारत में हमेशा कुछ ऐसे लोग मौजूद हैं जो तथाकथित इंडो-पैसिफिक रणनीति की ढ़ोल जोरों से बजाने में व्यस्त हैं। उनका सपना है कि सामान्य मूल्यों पर आधारित यही तंत्र से न केवल इस क्षेत्र में व्यवस्था की रक्षा की जाएगी, बल्कि चीन के प्रवेश को भी रोका जाएगा। लेकिन 7 अप्रैल को, जब अमेरिका के 9000-टन स्तरीय विध्वंसक बोट जॉन पॉल जोन्स ने भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र(एऐ)में दिखाई दिया और अपनी नेविगेशन की स्वतंत्रता के अधिकार का दावा किया, तब भारत इस अचानक कार्रवाई से हैरान हुआ और नम्रता से विरोध प्रकट किया कि अमेरिकी नौसेना की यह कार्रवाई अनधिकृत थी। और अमेरिका को समुद्र तटीय देशों की सहमति के बिना इनके समुद्रीय आर्थिक क्षेत्रों में सैन्य कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है। यह घटना प्रथम क्वाड समिट के केवल एक महीने के बाद और अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष दूत की नई दिल्ली यात्रा के दौरान घटित हुई। हाल के वर्षों में, भारत और अमेरिका हमेशा ऊंची आवाज में एक स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक का गाना गा रहे हैं, लेकिन तथ्यों ने साबित कर दिया है कि उनके हित सुसंगत नहीं हैं। संयुक्त राष्ट्र समुद्र कानून संपन्न होने के 40 साल बाद अमेरिका ने अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है। हालांकि, 1 अक्टूबर, 2019 से 30 सितंबर, 2020 तक, अमेरिकी सेना ने दुनिया में 19 देशों के 28 समुद्रीय अधिकार संबंधी दावेदारी के विरूद्ध चुनौती की कार्रवाई की। उधर भारत ने हमेशा हिंद महासागर को अपना पिछवाड़ा माना है। लेकिन भारत का स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक पर अमेरिका का अनुसरण करना हास्यस्पस्द है। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुद्र कानून के संदर्भ में, भारत और चीन के बीच जो समानता है, वह भारत और अमेरिका के बीच की समानता से और अधिक है। भारत के समुद्र आर्थिक क्षेत्र में अमेरिकी नौसेना की गश्ती भारत के लिए एक सबक है। इससे पता चला है कि अमेरिका कहीं भी स्थल पर अपनी एकतरफा कार्रवाई करने की क्षमता और इच्छा रखता है, चाहे वह दुश्मन हो या सहयोगी। अमेरिकी थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन में कार्यरत विदेश नीति शोधकर्ता देवी मदान ने हाल ही में मीडिया से कहा कि हालांकि भारत में कुछ लोग ऐसे हैं जो चीन का विरोध करने के साथ-साथ अमेरिका के नजदीक जाना चाहते हैं। लेकिन अमेरिका को भारत एक सहयोगी के रूप में देखने की इच्छा नहीं है। तथाकथित क्वाड तंत्र नाटो का एशियाई संस्करण नहीं है, बल्कि वह अमेरिका के नेतृत्व में एक संगठन है जो एशियाई क्षेत्र में चीन की प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश कर रहा है। हालांकि, यूएस-इंडिया गठबंधन के बारे में सवाल यह है कि भारत अमेरिका का सहयोगी नहीं बन सकेगा। पर कुछ हद तक भारत का साथ देने में अमेरिका के लिए मददगार है। उदाहरण के लिए, सीमा विवाद, आरसीईपी की अस्वीकृति और भारत-पाक संघर्ष आदि यह दर्शाते हैं कि भारत और चीन के बीच जो टकराव है वह अमेरिका के हित में है। लेकिन बात इतनी ही तक है। अमेरिकी थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के विश्लेषक का मानना है कि भारतीय लोकतंत्र अमेरिकी मूल्यों के अनुरूप सचमुच लोकतंत्र नहीं है, और भारत का लोकतंत्र सऊदी अरब से बेहतर नहीं है। जब तक भारत अपने आर्थिक नीति समायोजन को तेज नहीं करता और अमेरिका की आवश्यकताओं के अनुसार पश्चिमी पूंजी के लिए द्वार नहीं खोलता, तब तक अमेरिका भारत को एक सच्चे लोकतंत्र के रूप में नहीं मान सकता। अमेरिका भारत को अपना सहयोगी नहीं मानेगा, और वह बार-बार भारत के हितों के साथ विश्वासघात करेगा। तथाकथित इंडो-पैसिफिक रणनीति बस एक ही बिस्तर में अलग अलग सपने हैं। ( साभार- चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग ) --आईएएनएस एएनएम

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