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भारत: गंगा नदी में प्लास्टिक प्रदूषण के ख़िलाफ़ यूनेप की मुहिम

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) ने 2020 में ,एशिया और प्रशान्त क्षेत्र की गंगा और मीकाँग नदियों में, प्लास्टिक कचरे के रिसाव की निगरानी और सर्वेक्षण करने के लिये ‘काउण्टरमैज़र परियोजना’ (CounterMEASURE project) शुरू की थी. यह परियोजना जापान से वित्त पोषित है. इसके तहत भारत में, गंगा नदी के किनारे बसे हरिद्वार, आगरा और प्रयागराज (पूर्व इलाहाबाद) शहरों में, प्लास्टिक जमाव और रिसाव वाले मुख्य केन्द्रों की पहचान की जी रही है. पूरी कार्रवाई पर भारत में यूनेप की सम्पादकीय सलाहकार, अनूषा कृष्णन की रिपोर्ट... हाल ही में, गंगा नदी के किनारे प्लास्टिक के संचय और रिसाव वाले हॉटस्पॉट्स की पहचान करने वाली एक परियोजना के दौरान मालूम हुआ हुआ कि भारत के तीन उत्तरी शहरों में उत्पन्न होने वाले सभी प्लास्टिक कचरे का लगभग 10-25% हिस्सा, री-सायकलिंग यानि उपयुक्त अपशिष्ट निपटान के लिये नहीं भेजा जाता. विभिन्न शहरों के प्रमुख स्थानों में उत्पन्न या जमा होने वाला यह कचरा, इस क्षेत्र की नदी प्रणाली में प्लास्टिक के रिसाव का एक प्रमुख स्रोत है, ख़ासतौर पर बारिश के मौसम में. इस कूड़े में अधिकांशत: बहुपरतीय प्लास्टिक पैकेजिंग, एक बार प्रयोग करके फेंक दी जाने वाली प्लास्टिक बोतलें, चम्मच वग़ैरा, नायलॉन के बोरे और पॉलिथीन बैग शामिल थे. 'काउण्टरमैज़र' परियोजना जापान द्वारा वित्त पोषित, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूनेप) की इस 'काउण्टरमैज़र' परियोजना के अन्तर्गत, विशेष रूप से गंगा और मीकाँग नदियों में प्लास्टिक कचरे के रिसाव और जमाव की निगरानी व सर्वेक्षण करने के के प्रयास किये गए हैं. भारत की राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद (एनपीसी) द्वारा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की साझेदारी में प्रकाशित एक रिपोर्ट की रूपरेखा के मुताबिक़, प्रत्येक शहर में, भौगोलिक क्षेत्रों के भौतिक सर्वेक्षणों को जीआईएस (भौगोलिक सूचना प्रणाली) मानचित्रण से डेटा के साथ जोड़ा गया था, ताकि भूमि और जल निकासी टोपोलॉजी व मानव भूमि-उपयोग पैटर्न का चार्ट तैयार किया जा सके. उसके बाद, सर्वेक्षण और सफ़ाई अभियान के ज़रिये, प्लास्टिक कूड़े के बारे में जानकारी इकट्ठी की गई, जिसे भौतिक सर्वेक्षण डेटा के साथ जोड़ा गया, ताकि प्रत्येक शहर के भीतर, प्लास्टिक संचय और रिसाव वाले 'हॉटस्पॉट' यानि बड़े स्थानों की समझ हासिल की जा सके. प्लास्टिक कूड़े का आकलन करने के लिये सफ़ाई अभियान, चुनिन्दा हॉटस्पॉट्स पर आयोजित किये गए थे. एनपीसी में 'काउण्टरमैज़र प्रोजेक्ट' के लिये भारत में यूनेप के तकनीकी और प्लास्टिक प्रदूषण सलाहकार, अमित जैन ने बताया, “हॉटस्पॉट पर प्रत्येक सफ़ाई सत्र के दौरान, स्थानीय नगर पालिका से कम से कम 40-50 स्वयंसेवकों और सफ़ाई कर्मचारियों की आवश्यकता होती है, जो हमारी प्रयोगशालाओं में आगे के विश्लेषण के लिये, प्लास्टिक कचरे को इकट्ठा करने, अलग करने और पैक करने के लिये पूरे दिन काम करते हैं.” एनपीसी टीम के एक सदस्य ने बताया कि साफ़-सफ़ाई अभियान पूर्ण वैज्ञानिक तरीक़े से आयोजित किया गया था. उन्होंने कहा, "आगरा में, यमुना नदी के पास एक सफ़ाई अभियान के दौरान तो इतना कूड़ा इकट्ठा हुआ कि उसके लिये हमें 40-50 बोरों की आवश्यकता पड़ी.” हरिद्वार Vis M/Wikimedia Commons हरिद्वार में हर रोज़, लगभग 11 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है. भारत के उत्तरी प्रदेश उत्तराखण्ड के दूसरे सबसे बड़े शहर, हरिद्वार में रोज़ाना लगभग 11 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है. 'काउण्टरमैज़र प्रोजेक्ट' ने पाया कि हिन्दू धर्म में एक पवित्र स्थान के रूप में माना जाने वाला यह शहर, त्यौहारों के दौरान इससे दोगुनी से भी अधिक मात्रा में प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करता है. इस प्लास्टिक कचरे में से अधिकांश को या तो सीधे गंगा घाटों पर फेंक दिया जाता है या अवैध रूप से ख़ाली जगहों पर डाल दिया जाता है. परियोजना ने हरिद्वार में 17 रिसाव वाले हॉटस्पॉट्स की पहचान की, जिनमें ख़ाली इलाक़े, खुले नालों वाली मलिन बस्तियों जैसे क्षेत्र शामिल हैं. आगरा देश के सबसे बड़े प्रान्त - उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में, 9 'हॉटस्पॉट्स' से अनुमानित 10 से 30 टन प्लास्टिक कचरा यमुना नदी में जाता है, जो गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी है. ऐसा लगता है कि ज़्यादातर रिसाव नदी के किनारे की झुग्गियों से होता है जहाँ कचरा इकट्ठा करने की कोई ठोस प्रणाली नहीं है, और प्लास्टिक कचरा खुली नालियों के माध्यम से नदी में प्रवेश कर जाता है. इसके अलावा, मिठाई की दुकानों में उपयोग की जाने वाली पतली प्लास्टिक की चादरें, औद्योगिक क्षेत्र से सिन्थेटिक चमड़े और जूता उद्योग से सिन्थेटिक रबर की कतरने भी भारी मात्रा में नदी में बहाई जाती हैं. प्रयागराज वहीं, ताज नगरी - आगरा से लगभग 500 किलोमीटर दूर प्रयागराज में, प्रतिदिन लगभग आठ टन प्लास्टिक कूड़े का, भूमि व नदी के पारिस्थितिकी तंत्र में रिसाव होने का अनुमान है. इसमें से अधिकांश घरेलू प्लास्टिक कचरा है जिसे अक्सर खुले क्षेत्रों में फेंक दिया जाता है, जिनमें से अनेक बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों में होते हैं. तीनों शहरों में से, प्रयागराज में प्लास्टिक रिसाव का परिदृश्य सबसे बड़ा नज़र आया. यहाँ शहर के भीतर ही लगभग 100 हॉटस्पॉट्स पाए गए. ‘प्लास्टिक के सूप’ में बदल रहे विश्व के जलस्रोत प्लास्टिक अब पृथ्वी पर लगभग हर महासागर, समुद्र, नदी, आर्द्रभूमि और झील में पाए जाने लगे हैं. स्विट्ज़रलैंड की अल्पाइन झील सासोलो जैसे दूरदराज़ के इलाके भी, प्लास्टिक से दूषित हो चुके हैं, जबकि वो किसी भी मानव निवास से सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं. महासागरों में प्लास्टिक की मौजूदगी की पहली रिपोर्ट 1965 में दर्ज की गई, जब जल में मौजूद सूक्ष्म जीवों की निगरानी के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले पुराने ज़माने के धातु के बक्से में, आयरलैण्ड के तट में, एक प्लास्टिक बैग फँस गया था. हालाँकि, समुद्री प्लास्टिक कूड़े का मुद्दा असल में 1997 में ‘ग्रेट पैसिफ़िक गार्बेज पैच’ की खोज के साथ सुर्ख़ियों में आया. यह पैच 16 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है, और इसमें न केवल इसकी सतह पर, बल्कि जल के अन्दर और समुद्र तल पर भी प्लास्टिक बिखरा मिला. शोध के अनुसार, ये नदियाँ राजमार्गों की तरह हैं जिनके ज़रिये 4 से 40 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक, मानवीय निवासों से महासागरों तक पहुँचता है. अप्रैल 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि जल मार्गों से बहकर समुद्रों में आने वाले प्लास्टिक कचरे के 80% हिस्से के लिये, लगभग 1000 नदियाँ ज़िम्मेदार हैं. वहीं 2018 के पिछले शोध ने दुनिया की दस सबसे बड़ी नदियों को शीर्ष प्लास्टिक अपशिष्ट वाहक के रूप में पहचाना था - जिनमें भारत से सिन्धु, ब्रह्मपुत्र और गंगा नदियाँ शामिल हैं – लेकिन यह नया अध्ययन और अधिक जटिल तस्वीर पेश करता है. इससे मालूम होता है कि बड़ी नदियों की तुलना में, भारी आबादी वाले क्षेत्रों से होकर गुज़रने वाली छोटी नदियाँ, अक्सर अधिक प्लास्टिक कूड़ा बहा ले जाती हैं. अभी तक, जल निकायों में प्लास्टिक कचरे का अधिकांश डेटा समुद्री पर्यावरण से सम्बन्धित है क्योंकि अनुसन्धान ज़्यादातर महासागरों में प्लास्टिक प्रदूषण पर केन्द्रित है. ताज़े जल निकायों पर अनुसन्धान पिछड़ गया है; परिणामस्वरूप, इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि प्लास्टिक कैसे लीक होता है और किस तरह नदी प्रणालियों में बह जाता है. वर्ष 2018-2019 में, गंगा नदी में प्लास्टिक कचरे की पूरी तस्वीर की पहचान करने वाले पहले अभियानों में से एक था - भारत और बांग्लादेश की महिला वैज्ञानिकों व इंजीनियरों के एक दल द्वारा किया गया शोध. ‘स्रोत से सागर तक: गंगा नदी अभियान’ नामक यह अभियान, नेशनल ज्योग्राफ़िक सोसाइटी के सहयोग से किया गया था, व मीठे पानी के स्रोत के ज़रिये समुद्र में जाने वाले प्लास्टिक कूड़े की मात्रा को सत्यापित करने वाला, उस समय में विश्व का पहला ज़मीनी प्रयास था. गंगा में 'मैक्रोप्लास्टिक्स' और 'माइक्रोप्लास्टिक्स' प्लास्टिक कूड़े के अलावा, गंगा में प्लास्टिक प्रदूषण का एक अन्य स्रोत ‘घोस्ट फिशिंग गियर' है – यानि फेंका हुआ, खोया हुआ, या त्याग दिया गया जाल, और मछली पकड़ने के उद्योग द्वारा उपयोग किये जाने वाले अन्य प्लास्टिक उपकरण. बांग्लादेश तट से भारत में हिमालय तक सम्पू्र्ण गंगा तट से नमूने इकट्ठे करने वाले, 2020 के एक अध्ययन में, समुद्र के पास मत्स्य पालन सम्बन्धित वस्तुओं का कूड़ा भारी मात्रा में पाया गया. अध्ययन में कहा गया है कि यह सम्भवतः इलाक़े में भारी मात्रा में मछली पकड़ने की गतिविधि होने और मछली पकड़ने के काम आने वाली चीज़ों के निचले इलाक़ों में इकट्ठा होने की वजह से है. यह व्यापक रूप से ज्ञात है कि मछली पकड़ने के लिये जाल, रस्सी, स्ट्रिंग, फ्लोट्स और लाइन जैसे सामान में अक्सर गंगा में पाए जाने वाले डॉल्फ़िन, कछुए और चिकने-लेपित ऊदबिलाव आदि मीठे पानी के जानवर भी उलझ कर मर सकते हैं. हालाँकि, ‘लीकेज हॉटस्पॉट’ और ‘घोस्ट फिशिंग गियर’ पर विश्लेषण और काम किया जा रहा है, लेकिन यह गंगा में प्लास्टिक कूड़े का बहुत छोटा सा परिदृश्य ही पेश करता है क्योंकि इसमें केवल 'मैक्रोप्लास्टिक्स' का ही आकलन किया गया है – यानि आँखों से दिखने वाले, आकार में 5 मिमी से बड़े प्लास्टिक के टुकड़े. मैक्रोप्लास्टिक में हर साल लाखों जलीय जानवर उलझकर मर जाते हैं; समुद्र की सतह पर तैरने वाले मैक्रोप्लास्टिक सतह के तापमान और पानी के स्तम्भों के ऑप्टिकल गुणों को भी प्रभावित कर सकते हैं, व उनके माध्यम से अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन प्रभाव पैदा कर सकते हैं. इन प्रभावों के अलावा, मैक्रोप्लास्टिक्स, माइक्रोप्लास्टिक्स के रूप में जाने जाने वाले छोटे टुकड़ों में विभाजित होकर और भी समस्याएँ पैदा करते हैं. माइक्रोप्लास्टिक कण आकार में 5 मिमी से छोटे होते हैं और या तो मैक्रोप्लास्टिक विघटन से उत्पन्न होते हैं या माइक्रोबीड्स (आकार में 1 मिमी से कम) के रूप में निर्मित होते हैं, जिनका उपयोग बायोमेडिकल उपकरणों और व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों जैसे फेस वाश, स्क्रब और टूथ पेस्ट में किया जाता है. प्लास्टिक के इन छोटे टुकड़ों का असर बड़ा होता है. माइक्रोप्लास्टिक्स अक्सर एण्टीबायोटिक प्रतिरोधक के रूप में काम करते हैं क्योंकि वे सूक्ष्मजीवों की परतों के निर्माण में सहायक होते हैं. वे भूजल और सतही जल प्रणालियों में भारी धातु दूषण फैलाने का कारक भी होते हैं. इसके अलावा, प्लवक, मछली और मोलस्क सहित विभिन्न प्रकार के जलीय जीव, इन माइक्रोप्लास्टिक्स को निगल लेते हैं. इन कणों ने पूरे समुद्री खाद्य जाल में घुसपैठ कर ली है, और अन्ततः ये मनुष्यों में वापस पैठ कर लेते हैं. हालाँकि माइक्रोप्लास्टिक से मुख्यत: जलीय जीवन को नुक़सान पहुँचता है, फिर भी मनुष्यों पर उनके प्रभावों का अध्ययन जारी है. अप्रैल 2021 में एक अध्ययन में नदी में माइक्रोप्लास्टिक दूषण का अनुमान लगाने के लिये, गंगा के 2575 किलोमीटर के क्षेत्र में, 10 स्थलों से पानी के नमूनों का परीक्षण किया गया. परिणाम दर्शाते हैं कि गंगा के सतही जल में 0.026–0.051 माइक्रोप्लास्टिक कण प्रति लीटर (या 26–51 कण प्रति घन मीटर) होते हैं; इनमें से लगभग 90% प्लास्टिक फाइबर थे, जबकि बाक़ी प्लास्टिक के टुकड़े थे. अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि विभिन्न स्थलों पर जल प्रवाह दर के आधार पर, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों को मिलाकर, गंगा संभवत: एक से लेकर तीन अरब माइक्रोप्लास्टिक कण बंगाल की खाड़ी में छोड़ती है. आईसीएआर - सैण्ट्रल इनलैण्ड फिशरीज़ रीसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा 2019 में किये गए एक दूसरे अध्ययन में बताया गया है कि गंगा के निचले और मुहाने के 7 स्थानों से एकत्र किए नमूनों में प्रति किलोग्राम नदी के तलछट में 100-400 माइक्रोप्लास्टिक कण मौजूद थे; अधिकांश माइक्रोप्लास्टिक पॉलीथिन टेरेफ्थेलेट (PET बोतलें बनाने में काम आने वाले) और पॉलीइथाइलीन से बने थे. सिन्धु और ब्रह्मपुत्र नदियों के साथ-साथ अलकनन्दा (गंगा की एक सहायक नदी) पर इसी तरह के अध्ययनों से संकेत मिलता है कि नदी तलछट और पानी में सैकड़ों से हजारों माइक्रोप्लास्टिक कण मौजूद हैं. विभिन्न प्रणालियाँ, समान परिणाम; लेकिन क्या उनकी तुलना करना सही है? Unsplash/Angela Compagnone समुद्री प्लास्टिक के मलबे ने 600 से अधिक समुद्री प्रजातियों को प्रभावित किया है. गंगा और उसकी सहायक नदियों के अलावा, प्लास्टिक प्रदूषण की उपस्थिति के लिये, भारत में कई अन्य मीठे पानी के स्रोतों की भी जाँच की गई है. केरल में करामाना नदी के सफ़ाई अभियान से पता चला है कि मैक्रोप्लास्टिक्स नदी में और उसके किनारे पाए जाने वाले कचरे का 80% हिस्सा बनाते हैं; इसमें से अधिकां घरेलू कचरे और कूड़े से आते हैं. कर्नाटक के कुद्रेमुख में उत्पन्न होकर धर्मशाला व सुब्रामण्या जैसे प्रमुख तीर्थस्थलों से होकर, अरब सागर में मिलने वाली, नेत्रावती नदी पर एक अन्य अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह नदी अपने स्रोत से सागर में गिरने तक माइक्रोप्लास्टिक से दूषित है. नदी के प्रत्येक घन मीटर पानी और एक किलो तलछट में औसतन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण पाए जाते हैं. उसमें से अधिकांश माइक्रोप्लास्टिक कपड़ों की धुलाई या पॉलीइथाइलीन और PET बोतलों के टुकड़ों से निकलने वाले फ़ाइबर हैं, जैसे गंगा और उसकी सहायक नदियों में पाए गए थे. साबरमती नदी पर किये गए एक अध्ययन में प्रति किलो नदी तलछट में सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए. चेन्नई में अडयार और कोसस्थलैयार नदियों की जाँच से संकेत मिलता है कि वे बंगाल की खाड़ी में 11.6 ट्रिलियन माइक्रोप्लास्टिक कण छोड़ने के लिये ज़िम्मेदार हो सकती हैं. इसी अध्ययन से यह भी संकेत मिलता है कि कम मानवजनित प्रभाव वाली दूरस्थ पर्वतीय नदियों (मुथिरप्पुझायर नदी, जो दक्षिणी पश्चिमी घाट के पास बहती है) में माइक्रोप्लास्टिक कण स्तर 0.2 कण प्रति लीटर (या 200 कण प्रति एम 3) हो सकते हैं. केरल में वेम्बनाड झील के साथ-साथ रैड हिल्स झील और तमिलनाडु में वीरनम झील में इसी तरह की जाँच में, पानी और तलछट दोनों के नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए हैं. हालाँकि भारत के ताज़ा पानी स्रोतों में माइक्रोप्लास्टिक्स की उपस्थिति ख़तरनाक है, लेकिन फिर भी कई अन्य नदियों के मुक़ाबले इनमें से अधिकांश का स्तर कम लगेगा - ख़ासतौर पर चीन में पर्ल नदी की तुलना में (जिसमें प्रति घन मीटर पानी में 10,000-20,000 माइक्रोप्लास्टिक कण होते हैं). हालाँकि, इन विभिन्न प्रणालियों से माइक्रोप्लास्टिक कणों के स्तरों की तुलना नहीं की जा सकती है, काउण्टरमैज़र प्रोजेक्ट से एनपीसी टीम की एक सदस्य का कहना है कि "दुनिया भर में माइक्रोप्लास्टिक्स पर काम करने वाले सभी समूहों के लिये समान मानकीकृत तरीक़े अपनाए जाने की आवश्यकता है." फ़िलहाल, जल निकायों में माइक्रोप्लास्टिक दूषण पर प्रकाशित अधिकतर अध्ययनों में नमूना लेने के तरीक़े और विश्लेषण प्रणाली व्यापक रूप से भिन्न हैं. बहुत से अध्ययनों में केवल सतही जल या तलछट में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक को जाँचा जाता है, लेकिन अन्दर तक नहीं. वहीं कुछ अध्ययन सूक्ष्म प्लास्टिक कणों का पता लगाने के लिये सूक्ष्मदर्शी यंत्रों का उपयोग करते हैं, जबकि अन्य एफ़टीआईआर (Fourier Transform Infrared Spectroscopy) का उपयोग करते हैं - एक ऐसी तकनीक जो सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की तुलना में अधिक छोटे माइक्रोप्लास्टिक कणों का पता लगा सकती है. एनपीसी टीम की सदस्य कहती हैं, “हम अपने समुद्रों, नदियों और झीलों, भूजल और यहाँ तक कि पीने के पानी के स्रोतों में माइक्रोप्लास्टिक ढूंढ रहे हैं. लेकिन जब माइक्रोप्लास्टिक पर काम करने की बात आती है तो शोधकर्ताओं के प्रयासों में कोई तालमेल नहीं होता. अगर हम प्राकृतिक दुनिया को दूषित करने वाले माइक्रोप्लास्टिक्स की इस विशाल समस्या से निपटना चाहते हैं, तो वैज्ञानिकों के बीच तालमेल की ज़रूरत है, और ज्ञान के आदान-प्रदान की आवश्यकता है." अध्ययन के मुख्य तथ्य • गंगा और उसकी सहायक नदियाँ, वो प्रमुख नदियाँ हैं जिनके ज़रिये भारी मात्रा में प्लास्टिक समुद्र में जाता है. • गंगा के अलावा, प्लास्टिक की उपस्थिति की जाँच करने वाले शोधकर्ताओं को, भारत की कई अन्य मीठे पानी की झीलों और नदियों में, परीक्षण किये गए प्रत्येक नमूने में, माइक्रोप्लास्टिक (आकार में 5 मिमी से छोटे प्लास्टिक कण) मिले हैं. • कई अध्ययनों के अनुसार, मछली-पालन उद्योग में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक कूड़े और प्लास्टिक के उपकरण, प्लास्टिक कचरे के प्रमुख स्रोत हैं. यह लेख पहले यहाँ प्रकाशित हुआ था. --संयुक्त राष्ट्र समाचार/UN News

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