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चीन और भारत को मजबूती से अपने विकास के रास्ते पर चलना चाहिए

बीजिंग, 11 मई (आईएएनएस)। हाल के वर्षो में, गैर-पश्चिमी दुनिया के पूर्ण पुनरुत्थान के सामने अमेरिका और पश्चिमी देशों के राजनीतिक विद्वानों को बहुत उलझन हुई है। फिर भी पश्चिमी समाज राजनीतिक और आर्थिक संकट को हल करने में असमर्थ रहा है। इसी समय, चीन और भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाएं राष्ट्रीय कायाकल्प की राह पर हैं। इतिहास के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हमें इतिहास के चुनाव की स्पष्ट समझ होनी चाहिए। केवल दो तीन दशक पहले जब सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपीय समाजवादी शिविर गिर पड़े, अमेरिका और पश्चिम के राजनेताओं ने अपने लोकतंत्र की सर्वोच्च महिमा महसूस की। उनका मानना था कि विश्व राजनीति का विकास समाप्त हो गया है, और पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था मानव समाज की अंतिम प्रणाली के रूप में जानी जाती है। हालांकि, नई सदी की शुरुआत के बाद से, सामाजिक विकास की वास्तविकता ने राजनेताओं और विद्वानों को दुनिया को पुनर्विचार करने, निरीक्षण करने और समझने के लिए मजबूर किया है। तथ्य यह है कि अनेक एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों द्वारा पश्चिमी लोकतांत्रिक प्रणालियों को लागू करने के बाद, इनके देश शासन की गुणवत्ता में सुधार नहीं हुआ है, आर्थिक छलांग भी नहीं हुई है, भ्रष्टाचार की समस्या बेरोकटोक जारी है, और समाज में अमीरों व गरीबों के बीच की खाई और गंभीर हो गई है। साल 1990 के दशक में मध्य-पूर्व में अमेरिका और पश्चिम द्वारा शुरू किए गए युद्धों की श्रृंखला से इन देशों में स्थिरता और समृद्धि कायम नहीं हो सकी। इसके बजाय, वे बड़े पैमाने पर नरसंहार, सामाजिक अशांति और आर्थिक अवसाद के दलदल में फंस चुके हैं। इसके साथ ही अमेरिका खुद भी एक दुविधा का सामना कर रहा है, क्योंकि वह युद्ध में गहराई से जुड़ा हुआ है। दूसरी ओर, आर्थिक रूप से फल-फूल रहे ब्रिक्स देशों और कुछ एशियाई देशों, हालांकि उन्होंने अलग-अलग राजनीतिक मॉडल चुने हैं, जिनकी आर्थिक समृद्धि बढ़ाने के लिए नीतियां समान हैं। वैश्वीकरण से दुनिया के सभी देशों को एक साथ बांध किया गया है। सभी मुद्दों को वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में लाया जाना चाहिए। और आज की दुनिया में जो विश्व मामलों के प्रभारी हैं, वे केवल देश और सरकारें नहीं हैं, बल्कि, उदाहरण के लिए, फेडरल रिजर्व, यूरोपीय सेंट्रल बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, बहुराष्ट्रीय वित्तीय समूह, सुपर मीडिया समूह, विशाल उच्च-तकनीकी समूह, बड़े लेखांकन कंपनियों और कड्रट रेटिंग एजेंसियों, शीर्ष अनुसंधान संस्थानों और थिंक टैंक, आदि। वास्तव में इनके हाथों में ही दुनिया के नियम बनाने का अधिकार है। चीन और भारत इन दो प्रमुख एशियाई देशों के रास्तों की तुलना करने से, लोग पा सकते हैं कि चाहे वे पश्चिमी प्रणाली को स्वीकार करें या नहीं, उनका आर्थिक विकास कुछ अन्य नियमों पर निर्भर है। इसलिए, लोग विश्वास नहीं कर सकते कि ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका जैसी पश्चिमी शक्तियों का उल्लेखनीय विकास इसलिए हुआ, क्योंकि उन्होंने सही राजनीतिक व्यवस्था चुन ली। नहीं, बिल्कुल नहीं, इन देशों के विकास का इतिहास हमेशा युद्ध, औपनिवेशिक लूट, दासता और नरसंहार के साथ-साथ जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिए, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ये चार देश सब ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित किए गए थे। उपनिवेशवादियों ने अपनी नई दुनिया की स्थापना के दौरान स्थानीय लोगों का खूब नरसंहार किया था। और उन्होंने लूटी गई भूमि और संसाधनों की नींव पर वर्तमान समृद्धि को स्थापित किया। वर्तमान में, पश्चिम में लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट लगातार बिगड़ता जा रहा है, और पश्चिमी देशों की सार्वजनिक प्रशासन क्षमताओं की खामियों के कारण से हमें इन की राजनीतिक प्रणाली का एक बार फिर आवलोकन करने का अवसर प्राप्त है। पश्चिम के इतिहास से यह साबित हुआ है कि अगर वे घरेलू अंतर्विरोधों को बाहर तक स्थानांतरित नहीं कर सकते हो, तो उनकी लोकतांत्रिक प्रणाली की नाजुकता काफी स्पष्ट बनेगी। जब अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उच्च तकनीक पर अपना एकाधिकार खो दिया, तो उनके आंतरिक संघर्ष तुरंत ही तेज बन जाएंगे। चीन, भारत और अन्य गैर-पश्चिमी देशों के पूर्ण उदय के बाद, पश्चिमी देश तेजी से अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अपना प्रमुख स्थान खो जाएगा। यदि जब वे विकासशील देशों के साथ असमान व्यापार संबंधों का आनंद नहीं ले सकते हैं, तो उनके आंतरिक संघर्ष तेज होगा और उनकी लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी अभूतपूर्व संकट का सामना करना पड़ेगा। यही कारण से अमेरिका उभरती अर्थव्यवस्थाओं की उच्च तकनीक कंपनियों को दबाने की अथक कोशिश कर रहा है और अन्य देशों को अपने आगे से चल जाने की अनुमति हरगिज नहीं दे रहा है। यदि पश्चिमी देश आर्थिक तंगी, अमीर व गरीब के बीच असमानता, और राजकोषीय संकटों के दलदल में फंस जाते हैं, तो उन के भीतर अनिवार्य रूप से नस्लवाद और जेनोफोबिया जैसी लहर समेट लेंगी। पश्चिमी सभ्यता की क्रूरता और आक्रामक प्रकृति भी तेजी से उजागर होगी। उनमें राजनैतिक फासीवादी प्रवृत्तियां और मजबूत होती जाएंगी, और विकासशील देशों के प्रति उनकी शत्रुता भी बढ़ती रहेगी। इसलिए, हमें व्यापक वैचारिक और सैद्धांतिक ²ष्टिकोण बनाये रखना चाहिए, और इस दुनिया में होने वाले परिवर्तनों की स्पष्ट समझ रखने के लिए प्रमुख राजनीतिक मुद्दों पर गहराई से विचार करना चाहिए। (साभार : चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग) --आईएएनएस एसजीके/एएनएम

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